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________________ किरण ४-५ जैनसंस्कृतिकी सप्ततत्व और षड्व्य व्यवस्थापर प्रकाश १८३ प्राणिसमूह' अर्थमें व्यवहत होता हुआ देखा जाता है धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां इसलिये यहांपर लोककल्याण शब्दसे 'जगतके प्राणि- महाजनो येन गतः स पन्थाः॥" समूहका कल्याण' अर्थ प्राण करना चाहिये । कोई २ इस पद्यमें हमें चार्वाकदर्शनकी आत्माका स्पष्ट दर्शन प्राणियों के दृश्य और अदृश्य दो भेद स्वीकार आभास मिल जाता है। इस पद्यका आशय यह करते हैं और किन्हीं २ दर्शनों में सिर्फ दृश्य प्राणियों है कि “धर्म मनुष्यके कत्तव्यमार्गका नाम है के अस्तित्वको ही स्वीकार किया गया है । दृश्य प्राणी और वह जब लोककल्याण के लिये है तो उसे भी दो तरह के पाये जाते हैं-एक प्रकारके दृश्य अखण्ड एक रूप होना चाहिये, नाना रूप नहीं, प्राणी वे हैं जिनका जीवन प्रायः समष्टि-प्रधान रहता लेकिन धर्मतत्वकी प्रतिपादक श्रुतियां और स्मृतियां है मनुष्य इन्हीं सष्टि-प्रधान जीवनवाले प्राणियों नाना और परस्पर विरोधी अर्थको कहने वाली देखी में गिना गया है क्योंकि मनुष्यों के सभी जीवन व्य- जाती हैं, हमारे धर्मप्रवर्तक महात्माओंने भी धर्मतत्व वहार प्रायः एक दूसरे मनुष्यकी सद्भावना, सहानुभूति का प्रतिपादन एक रूपसे न करके भिन्न भिन्न और सहायतापर ही निर्भर हैं मनुष्यों के अतिरिक्त रूपसे किया है इस लिये इनके (धर्मप्रवर्तक महाशेष सभी दृश्य प्राणी पशु-पक्षी सप, विच्छू , कीट- त्माओं के) वचनोंको भी सर्वसम्मतप्रमाण मानना पतंग वगैरह व्यष्टि-प्रधान जीवनव'ले प्राणी कहे जा असंभव है ऐसी हालतमें धर्मतत्व साधारण मनुष्यों सकते हैं क्योंकि इनके जीवनव्यवहारोंमें मनष्यों के लिये गूढ़ पहेली बन गया है अर्थात जैसी परस्परकी सद्भावना, सहानभूति और सहायता समझने में हमारे लिये श्रुति, स्मृति या कोई भी धर्मकी आवश्यता प्रायः देखने में नहीं आती है। इस प्रवर्तक सहायक नहीं हो सकता है इस लिये धर्मतत्व व्यष्टिप्रधान जीवनको समानताके कारण ही इन की पहेली में न उलझ करके हमें अपने कर्तव्यमार्ग पशु-पक्षी आदि प्राणियों को जैनदर्शनमें 'तियेग' नाम का निर्णय महापुरुषों के कर्तव्यमागेके आधारपर ही स पुकारा जाता हैं कारण कि 'तियग' शब्दका समा- करते रहना चाहिये तात्पर्य यह है कि महापुरुषोंका नता अर्थमें भी प्रयोग देखा जाता है । सभी भारतीय प्रत्येक कर्तव्य स्वपर कल्याणके लिये ही होता है इस दर्शनकारोंने अपने २ दर्शनके विकास में अपनी २ लिये हमारा जो कर्तव्य स्वपरकल्याण विरोधी मान्यता अनुसार यथायोग्य जगतके इन दृश्य और न हो उसे ही अविवाद रूपसे हमको धर्म समझ अदृश्य प्राणियों के कल्याणका ध्यान अवश्य रक्खा लेना चाहिये।" है। चावाकदर्शनको छोड़कर उल्लिखित सभी भार- मालूम पड़ता है कि चार्वाक दर्शनके आविष्कर्ता तीयदशेनों में प्राणियोंके जन्मान्तररूप परलोकका का अन्तःकरण अवश्य ही धर्म के बारेमें पैदा हुए समर्थन किया गया है इस लिये इन दर्शनोंके लोककल्याणके लिये खतरनाक मतभेदोंसे ऊब चुका आविष्कर्ताओं की लोककल्याण भावनाके प्रति तो था इस लिये उसने लोकके समक्ष इस बातको रखने संदेह करनेकी गुंजाइश ही नहीं है लेकिन उपलब्ध का प्रयत्न किया था कि जन्मान्तर रूप परलोक, स्वर्ग साहित्यसे जो थोड़ा बहुत चार्वाकदर्शनका हमें और नरक तथा मुक्तिकी चर्चा-जो कि विवादके दिग्दर्शन होता है उससे उसके (चार्वाकदर्शनके ) कारण जनहितकी घातक हो रही है-को छोड़ कर आविष्काकी भी लोककल्याण भावनाका पता हमें हमें केवल ऐसा मार्ग चुन लेना चाहिये जो जनहित सहज ही में लग जाता है। का साधक हो सकता है और ऐसे कर्तव्य मार्गमें किसी को भी विवाद करनेकी कम गुंजाइश रह सकती है। "श्रुतयो विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना, "यावज्जीवं सुखी जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुतः॥"
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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