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________________ १८४ अनेकान्त [ वर्ष - यह जो चार्वाक दर्शनकी मान्यता वतलाई जाती होगा कारणकि हम पहले बतला आये हैं कि मनुष्यका है वह कुछ भ्रममूलक जान पड़ती है अर्थात यह उन जीवन परस्परकी सद्भावना, महानुभूति और सहायता लोगोंका चार्वाक दर्शनके बारेमें भाक्षेप है जो के आधारपर ही सुम्बी हो सकता है। यदि एक मनुष्य सांप्रदायिक विद्वेषके कारण चार्वाकदर्शनको सहन नहीं को अपना जीवन सुखी बनाने के लिये संपूर्ण साधन कर सकते थे। उपलब्ध हैं और दूसरा उसका पड़ोसी मनुष्य चार __समस्त दर्शनों में बीजरूपसे इस उपयोगितावाद दिनसे भूग्वा पढ़ा हुआ है तो ऐसी हालतमें या तो को स्वोकार लेने पर ये सभी दर्शन जो एक दूसरेके पहिले व्यक्तिको दृमरे व्यक्तिके बारेमें सहायताके रूप अत्यन्त विरोधी मालूम पड़ रहे हैं ऐसा न होकर में अपना कोई न कोई कर्तव्य निश्चित करना होगा अत्यन्त निकटतम मित्रों के समान दिखने लगेंगे अर्थात अन्यथा नियमस दूसरा व्यक्ति पहिले व्यक्तिके सुम्बी उक्त प्रकारसे चार्वाक दर्शन में छिपे हुए उपयोगितावाद जीवनको ठेस पहुंचानेका निमित्त बन जायगा । के रहस्यको समझ लेनेपर कौन कह सकता है कि तात्पर्य यह है कि हमें परलोककी मान्यतासे अच्छे उमका (चार्वाकदर्शनका ) परलोकादिके बारेमें दसरे कृत्य करनेकी जितनी प्रेरणा मिल सकती है उससे भी दर्शनों के साथ जो मतभेद है वह खतरनाक है क्यों कहीं अधिक प्रेरणा वर्तमान जीवनको सखा बनानेकी कि जहाँ दूसरे दर्शन परलोकादिको आधार मान कर आकांक्षासे मिलती है, चार्वाकदर्शनका अभिप्राय हमें मनुष्योचित कर्तव्यमार्ग पर चलनेकी प्रेरणा करते इतना ही है। हैं वहाँ चार्वाक दर्शन सिर्फ वर्तमान जीवनको सुखी बौद्धोंके क्षणिकवाद और ईश्वरकर्तृत्ववादियों के बनाने के उद्देश्यसे ही हमें मानबोधित कर्तव्य मार्गपर ईश्वर कर्तृत्ववादमें भी यही उपयोगितावादका रहस्य चलनेकी प्रेरणा करता है। पर्वाकदर्शनकी इस मान्यता छिपा हुआ है। बौद्धदर्शनमें एक वाक्य पाया जाता का दूसरे दर्शनोंकी मान्यताके साथ समानतामें हेतु है-“वस्तुनि क्षणिकत्वपरिकल्पना आत्मबुद्धिनिरायह है कि परलोकादिके अस्तित्वको स्वीकार करने के साथम" अथात् पदार्थों में जगत्के प्राणियोंकि मनुबाद भी सभी दर्शनकारोंको इस वैज्ञानिक सिद्धान्त राग, द्वष और मोहको रोकने के लिये ही बौद्धों पर थाना पड़ता है कि "मनुष्य अपने वर्तमान जीवन ने पदोंकी अस्थिरताका सिद्धान्त स्वीकार किया है। में अच्छे कृत्य करके ही परलोकमें सुखी हो सकता इसी प्रकार जगतका कर्ता अनादि-निधन एक ईश्वरको है या स्वर्ग पा सकता है।" इस लिये चर्वाक मतका म न लेनेसे संस रके बहुजन समाजको अपने जीवन अनुयायी यदि अपने बर्तमान जीवनमें अच्छे कृत्य के सुधारमें काफी प्रेरणा मिल सकती है। तात्पर्य य करता है तो परलोक या स्वर्गके अस्तित्वको न मानने है कि एक व्यक्ति पदार्थोंकी क्षणभंगुरता स्वीकार करके मात्रसे उसे परलोकमें सुख या स्वर्ग पानेसे कौन रोक उनम विरक्त होकर यदि आर कल्याणकी खोज कर सकता है अन्यथा इसी तरह नरकका अस्तित्व न सकता है और दूसरा व्यक्ति ईश्वरको कर्ता धर्ता माननेके सबब पाप करनेपर भी उसका नरकमें जाना मान करके उसके भयसे यदि अनर्थोंसे बच सकता है कैसे संभव हो सकेगा? तात्पर्य यह है कि एक प्राणी तो इस तरह उन दोनों व्यक्तियों के लिये क्षणिकत्वनरकके मस्तित्वको न मानते हुए भी बुरे कृत्य करके वाद और ईश्वरकर्तृत्ववाद दोनोंकी उपयोगिता स्वयं यदि नरक जा सकता है तो दूसरा प्राणी स्वर्गके सिद्ध हो जाती है । इस लिये इन दोनों मान्यताओं के अस्तित्वको न मानते हुए अच्छे कृत्य करके स्वर्ग भी औचित्यके बारेमें “पदार्थ क्षणिक हो सकता है या जा सकता है। परलोक तथा स्वर्गादिके अस्तित्वको नहीं ? जगत्का कर्ता ईश्वर है या नहीं ?" इत्यादि न मानने वाला व्यक्ति अच्छे कृत्य कर ही नहीं सकता प्रश्नोंके आधार पर विचार न करके "क्षणिकत्ववाद है यह बात कोई भी विवेकी व्यक्ति माननेको तैयार न अथवा ईश्वरकर्तृत्व लोककल्याणके लिये उपयोगी
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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