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________________ किरण ४-५] जैनसंस्कृतिको सप्ततत्व और षड्द्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश १८५ सिद्ध हो सकते हैं या नहीं ?" इत्यादि प्रश्नों के आधार सुख-दुःकी परंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेद पर ही विचार करना चाहिये। स्वरूप निःश्रेयसका स्थान मुक्ति इन तत्वोंकी मान्यता माँख्य और वेदान्तदर्शनोंकी पदार्थमान्यतामें नहीं है इसलिये वहाँपर लोककल्याणकी सीमा उपयोगितावादको स्पष्ट झलक दिखाई देती है-इसका प्राणियोंके और विशेषकर मानवसमाजके वर्तमान स्पष्टीकरण 'पद्रव्यमान्यता के प्रकरण में किया जायगा। जीवनकी सुख-शान्तिको लक्ष्य करके ही निर्धारित ___ मीमांसादर्शनका भी आधार मनुष्योंको की गयी है और इसी लोककल्याणको ध्यान में रखकर स्वर्ग प्राप्तिके उद्देश्यसे यागादि कार्यों में प्रवृत्त कराने के ही वहाँ पदार्थोंकी व्यवस्थाको स्थान दिया गया रूप उपयागितावाद ही है, तथा जैनदर्शनमें तो उप- है। मीमांसादर्शनमें यद्यपि प्राणियों के जन्म-मरण योगितावादके आधारपर सप्ततत्वमान्यता और अस्ति- अथवा सुख-दुःखकी परंपरारूप संसारका मर्वथा त्ववादके आधारपर षड्द्रव्यमान्यता इस प्रकार विच्छेद स्वरूप निःश्रेयस और उसका स्थान मुक्ति इन पदार्थव्यवस्थाको ही अलग २ दो भागों में विभक्त तत्वोंकी मान्यता नहीं है वहाँपर स्वर्गसुखको ही कर दिया गया है। निःश्रेयम पदका और स्वर्गको ही मुक्तिपदका वाच्य इस तरहसे समस्त भारतीयदा स्वीकार किया गया है फिर भी प्राणियों का जन्मान्तरउपयोगितावादके विद्यमान रहते हुए भी अफ़सोस है. रूप परलोक, पुण्यका फल परलोकमें सुग्वप्राप्तिका कि धीरे धीरे सभी दर्शन उपयोगितावादके मूलभूत स्थान स्वर्ग और पापका फल परलोकमें दुःश्वप्राप्तिका आधारसे निकलकर अस्तित्ववादके उदर में समा गये स्थान नरक इन तत्वोंको वहाँ अवश्य स्वीकार किया गया अर्थात् प्रत्येक दर्शनमें अपनी व मरे दर्शनकी है इसलिये वहाँपर लोककल्याणकी सीमा प्राणियों के प्रत्येक मान्यताके विषयमें 'अमुक मान्यता लोक वर्तमान (ऐहिक) जीवनके साथ २ परलोककी सुखकल्याणके लिये उपयोगी है या नहीं?' इस दृष्टिसे शान्तिको ध्यानमें रखकर निर्धारित की गई है और इसी विचार न होकर 'अमुक मान्यता संभव हो सकती है लोककल्याणको रखकरके ही वहां पदार्थ-व्यवस्थाको या नहीं ? इस दृष्टिसे विचार होने लग गया और स्थान दिया गया है। चार्वाक और मीमांसा दर्शनों के इसका यह परिणाम हुआ कि सभी दर्शकारोंने अतिरिक्त शेष उल्लिखित वैदिक और अवैदिक सभी अपने २ दर्शनोंके भीतर उपयोगिता और अनुप- दर्शनोंमें उक्त प्रकार के परलोक, स्वर्ग और नरककी की मोर ध्यान न देते हए अपनी मान्यताको मान्यताके साथ २ प्राणियों के जन्म-मरण अथवा संभव और सत्य तथा दसरे दर्शनकारों की मान्यताको सुख-दुःखकी परंपरा रूप संसारका सर्वथा विच्छेद असंभव और असत्य सिद्ध करनेका दुराग्रहपूर्ण एवं स्वरूप निःश्रेयस और नि: यमका स्थान मुक्तिको परस्पर कलह पैदा करने वाला ही प्रयास किया है। मान्यताको भी स्थान प्राप्त हे इमलिये इन दर्शनों में ३ सप्ततत्त्व लोककल्याणकी सीमा प्राणियोंके ऐहिक और पारऊपर बतलाये गये दर्शनों में परलोक, स्वर्ग, लौकिक सुख-शान्तिके साथ २ उक्त निःश्रेयस और नरक और मुक्तिकी मान्यताके विषयमें जो मत मुक्तिको भी ध्यान में रखते हुए निर्धारित की गयी है पाया जाता है उसके आधारपर उन दर्शनों में लोक- और इसी लोककल्याण के आधार पर ही इन दर्शनोंमें कल्याणकी सीमा भी यथासंभव भिन्न २ प्रकारसे पदाथेठरवस्थाको स्वीकार किया गया है। निश्चित की गयी है । चार्वाकदर्शन में प्राणियोंका तात्पर्य यह है कि चार्वाक दर्शनको छोड़कर जन्मान्तर रूप परलोक, पुण्यका फल परलोकमें सुख परलोकको माननेवाले मीमांमादशेनमें और परलोक प्राप्तिका स्थान स्वगे, पापका फल परलोकमें दुःखप्राप्ति के साथ २ मुक्तिको भी माननेवाले सांख्य, वेदान्त, का स्थान नरक और प्राणियों के जन्म-मरण अथवा योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध दर्शनों में
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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