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अनेकान्त
जगत्के प्रत्येक प्राणी के शरीर में स्वतंत्र और शरीर के साथ घुल-मिल करके रहनेवाला एक चित्शक्तिfafaष्ट are eater faया गया है । यद्यपि सर्वसाधारण मनुष्योंके लिये इसका प्रत्यक्ष नहीं होता है और न ऐसा कोई विशिष्ट पुरुष ही वर्तमान में मौजूद है जिसको इसका प्रत्यक्ष होरहा हो परन्तु इतना अवश्य है कि प्रत्येक प्राणी में दूसरे प्राणियों की प्रेरणा के बिना ही जगत्के पदार्थोंके प्रति राग, द्वेष या मोह करना अथवा विरक्ति अर्थात समताभाव रखना, तथा हर्पे करना, विषाद करना दूसरे प्राणियों
का अपकार करना, पश्चात्ताप करना, परोपकार करना, हंसना, रोना, सोचना, समझना, सुनना, देखना, सूंघना, खाना, पीना बोलना, बैठना, चलना, काम करना, थक जाना, विश्रान्ति लेना, पुनः काममें जुट जाना, सोना, जागना और पैदा होकर छोटेसे बड़ा होना इत्यादि यथासंभव जो विशिष्ट व्यापार पाये जाते हैं वे सब व्यापार प्राणिवर्गको लकड़ी, मट्टी, पत्थर, मकान, कपड़ा, बर्तन, कुर्सी, टेबुल, सोना, चांदी, लोहा, पीतल, घंटी, घड़ी, ग्रामोफोन, रेडियो, सिनेमाके चित्र, मोटर, रेलगाड़ी, टेंक, हवाई जहाज और उड़नयम आदि व्यापारशून्य तथा प्राणियोंकी प्रेरणा पाकर व्यापार करनेवाले पदार्थोंसे पृथक कर देते हैं और इन व्यापारोंके आधारपर ही उक्त दर्शनों में यह स्वीकार कर लिया गया है कि प्रत्येक प्राणी के शरीर में शरीर से पृथक एक एक ऐसा तत्व भी वद्यमान है जिसकी प्रेरणा से ही प्रत्येक प्राणी में उल्लिखित विशिष्ट व्यापार हुआ करते हैं इस तत्वको सभी दर्शन, चित्शक्तिविशिष्ट स्वीकार करते हैं तथा अपने अपने अभिप्रायके अनुसार सभी दर्शन इसको पुरुष, आत्मा. जीव, जीवात्मा ईश्वरांश या परब्रह्मांश आदि यथायोग्य अलग नामों से उल्लेख करते हैं ।
प्रत्येक प्राणीके शरीर में एक एक चित्शक्तिविशिष्ट तत्व अस्तित्वकी समान स्वीकृति रहने हुए भी उक्त दर्शनों में से कोई कोई दर्शन तो इन सभी वितृशक्तिविशिष्ट तत्वोंको परस्पर मूलतः ही पृथक करते हैं और कोई कोई ईश्वर या परब्रह्मके एक एक
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अंशके रूपमें इन्हें पृथकू र स्वीकार करते हैं अर्थात् कोई कोई दर्शन उक्त चित्शक्तिविशिष्ट तत्वों की स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करते हैं अर्थात कोई दर्शन उनकी नित्य और व्यापक ईश्वर या परब्रह्म से उत्पत्ति स्वीकार करके एक एक चित्शक्तिविशिष्ट तत्वको उक्त ईश्वर या परब्रह्न का एक एक अंश मानते हैं उन्हें मूलतः पृथक् पृथक नहीं मानते हैं । सांख्य, मीमांसा आदि कुछ दर्शनो के साथ २ जैन दर्शन भी संपूर्ण चित्शक्तिविशिष्ट तत्वोंकी स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करके उन्हें परस्पर भी पृथकू २ ही मानना है ।
उक्त प्रकारस चित्शक्तिविशिष्टतत्वकी सत्ताको स्वीकार करनेवाले सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध ये सभी दर्शन प्राणियों को समय समयपर होनेवाले सुख तथा दुःख का भोक्ता उन प्राणियों के अपने २ शरीर में रहनेवाले चितशक्तिविशिष्टतत्वको ही स्वीकार करते हैं सभी दर्शनोंकी इस समान मूलमान्यता के आधारपर उनमें (सभी दर्शनों में ) समानरूपसे निम्नलिखित सिद्धान्त स्थिर होजाते हैं
(१) प्रत्येक प्राणी के अपने २ शरीर में मौजूद तथा भिन्न २ दर्शनों में पुरुष, आत्मा, जीव, जीवात्मा, ईश्वरांश या परब्रह्मांश आदि यथायोग्य भिन्न २ नाम से पुकारे जानेवाले प्रत्येक विनशक्तिविशिष्टतत्व का अपने २ शरीर के साथ आबद्ध होने का कोई न कोई कारण अवश्य है ।
(२) जब कि प्राणियोंके उल्लिखित विशिष्ट व्यापारोंके प्रादुर्भाव और सर्वथा विच्छेदके आधार शरीर के साथ प्राप्त हुई बद्धताका जन्म और मरण के पर प्रत्येक चित्शक्तिविशिष्ट तत्वकी अपने २ वर्तमान रूपमें आदि तथा अन्त देखा जाता है तो मानना पड़ता है कि ये सभी चितशक्तिविशिष्ट तत्व सीमित काल तक ही अपने २ वर्तमान शरीर में भावद्ध रहते हैं ऐसी हालत में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अपने २ वर्तमान शरीर के साथ आवद्ध होनेसे पहिले ये चित्शक्तिविशिष्टतत्व किस रूप में विद्यमान रहे होंगे ? यदि कहा जाय कि अपने २ वर्तमान शरीर के