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________________ किरण ४-५] जैनसंस्कृतिकी सप्ततत्व और षड्द्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश १८७ साथ आबद्ध होनेसे पहिले वे सभी चिनशक्तिविशिष्ट है। इनमें से योग न्याय और वैशेषिक दशनों में माना तत्व शरीरके बन्धनसे रहित विल्कुल स्वतंत्र थे तो गया ईश्वर उनकी मान्यताके अनुसार चित्शक्तिप्रश्न उठता है कि इन्हें अपने अपने वर्तमान शरीरके विशिष्टतत्वोंके साथ असंबद्ध रहते हुए भी उनके मन, साथ आबद्ध होनेका कारण अकस्मात् कैसे प्राप्त हो वचन और शरीर संवन्धी पुण्य एवं पापरूप कृत्यों के गया ? इस प्रश्नका उचित समाधान न मिल सकनेके आधारपर सुख तथा दुःखके भोगमें सहायक शरीरके कारण चितशक्तिविशिष्टतत्वकी सत्ताको स्वीकार करने साथ उन्हें आबद्ध करता रहता है। शेष सांख्य आदि वाले उक्त सभी दर्शनों में यह बात स्वीकार की गयी दर्शनोंमें चितशक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरबद्धतामें है कि अपने अपने वर्तमान शरीर के साथ आबद्ध माने गये प्रकृति आदि कारण उन चिनशक्तिविशिष्टहोनेसे पूर्व भी ये सभी चितशक्तिविशिष्टतत्व किसी तत्वोंके साथ किसी न किसी रूपमें संवद्ध रहते हुए दुसरे अपने २ शरीरके माथ आबद्ध रहे होंगे और ही उनके मन, वचन और शरीर संबन्धी पुण्य एवं उमसे भी पूर्व किसी दूसरे २ अपने २ शरीरके साथ पापरूप कृत्यों के आधार पर सुख तथा दुःखके भोगमें आबद्ध रहे होंगे इस प्रकार सभी चितशक्तिविशिष्ट- सहायक शरीरके साथ नन्हें आबद्ध करते रहते हैं। तत्वोंकी शरीर वद्धताकी यह पूर्वपरंपरा इनकी स्वतंत्र इसी प्रकार चितशक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरवद्धताकी अनादि सत्ता स्वीकार करनेवाले दर्शनों की अपेक्षा जिस पूर्वपरंपगका नल्लेख पहले किया जा चुका है अनादिकाल तक और ईश्वर या परमब्रह्मसे इनकी उसकी संगतिके लिये योग, न्याय और वैशेषिक उत्पत्ति स्वीकार करनेवाले दर्शनोंकी अपेक्षा ईश्वर दर्शनों में ईश्वरको शाश्वत ( अनादि और अनिधन) या परमब्रह्मसे जबसे इनकी उत्पत्ति स्वीकार की गयी मान लिया गया है तथा एक जैनदर्शनको छोड़कर हे तब तक माननी पड़ती है। शेष सांख्य आदि सभी दर्शनों में चिनशक्तिविशिष्ट(३) चितशक्तिविशिष्टतत्वों की शरीरबद्धताका तत्वोंके माथ प्रकृति आदिके संबन्धको यथायोग्य कारण उनका स्वभाव है-यह मानना असंगत है अनादि अथवा ईश्वर या परमब्रह्मसे उनकी (चितशक्तिकारण कि एक तो स्वभाव परतंत्रताका कारण ही विशिष्टतत्वोंकी) उत्पत्ति होने के ममयसे स्वीकार किया नहीं हो सकता है। दूसरे, स्वभावसे प्राप्त हुई परतंत्रता गया है । जैनदर्शन में चितशक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरकी हालतमें उन्हें दुःखानुभवन नहीं होना चाहिये; बद्धतामें कारणभून कर्म के संबन्धको तो मादि स्वीलेकिन दुःस्वानुभवन होता है इस लिये सभी चित्- कार किया गया है परंतु उनकी = - शरीरबद्धताकी शक्तिविशिष्टतत्व की शरीरबद्धताका कारण स्वभावसे पूर्वोक्त अविच्छिन्न परम्पराकी संगतिके लिये वहांपर भिन्न किमी दूसरी चीजको ही मानना युक्तियुक्त जान (जैनदर्शनमें ) शरीरसम्बंधकी अविच्छिन्न अनादि पड़ता है और इसी लिये सांख्यदर्शनमें त्रिगुणात्मक परम्पराकी तरह उसमें कारगा भून कमसम्बधकी (मत्वरजस्तमोगुणात्मक) अचित प्रकृतिको वेदान्त- भी अविच्छिन्न अनादि परंपराको स्वीकार किया दशनमें असत कही जानेवाली विद्याको, मीमाँसा- गया है और इसका आशय यह है कि यदि दर्शनमें चिन्शक्तिविशिष्ट तत्वों में विद्यमान अशुद्धि चितशक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरबद्धतामें कारणभूत (दोष) को, ईश्वरकर्तृत्ववादी योग, न्याय और वैशे- उक्त कर्मसंबन्धको अनादि माना जायगा तो उसे षिक दर्शनोंमें इच्छा, ज्ञान और कृति शक्तित्रय कर्मसम्बंधको कारण रहित स्वाभाविक ही मानना विशिष्ट ईश्वरको, जैनदर्शनमें चित कर्म (पृथ्वी, होगा, लेकिन ऐसा मानना इस लिये असंगत है कि जल, अग्नि, वायु आदि द्रव्योंका सजातीय पौद्ल क इस तरहसे प्राणियों के जन्म-मरण अथवा सुख-दुःख वस्तुविशेष) को और बौद्धदर्शनमें विपरीताभिनिवेश की परंपरास्वरूप संसारका सर्वथा विच्छेदके अभाव स्वरूप अविद्याको उसका कारण स्वीकार किया गया का प्रसंग प्राप्त होगा जो कि साँख्य, वेदान्त, योग
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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