SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ अनेकान्त न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध इन दर्शनोंमें से किसी भी दर्शनको अभीष्ट नहीं है। मीमांसादर्शन में जो प्राणियों के जन्म-मरण अथवा सुःख दुग्वकी परंपरा रूप संसारका सर्वथा विच्छेद नहीं स्वीकार किया गया है उसका सच यही है कि वह चित्शक्तिविशिष्ट तत्वोंमें विद्यमान अशुद्धिके संबन्धको अनादि होनेके सबब कारण रहित स्वाभाविक स्वीकार करता है । परन्तु जो दर्शन प्राणियों के जन्म-मरण अथवा सुखदुःखकी परंपरा स्वरूप संसारका सर्वथा विच्छेद स्वीकार करते हैं उन्हें चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरवद्धतामें कारणरूप से स्वीकृत पदार्थ के सम्बंधको कारणसहित अस्वाभाविक ही मानना होगा और ऐसा तभी माना जा सकता है जब कि उस सम्बंधको सादि माना जायगा । यही सबब है कि जैनदर्शन में मान्य प्राणियों के जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परम्परा स्वरूप संसारके सर्वथा विच्छेद की संगति के लिये वहां पर ( जैनदर्शनमें ) शरीरसम्बंध में कारणभूत कर्मके सम्बंध को तो सादि माना गया है और शरीर सम्बंध की पूर्वोक्त अनादि परम्पराकी संगतिके लिये उस कर्म सम्बंध की भी अविच्छिन्न परंपराको अनादि स्वीकार किया गया है। इसकी व्यवस्था जैनदर्शन में निम्न प्रकार बतलायी गयी है [ वर्ष ८ उसी प्रकार अपने मन, वचन और शरीर सम्बंधी पुण्य एवं पापरूप कृत्यों द्वारा गरम हुआ ( प्रभावित ) उक्त चित्शक्तिविशिष्टतत्व समस्त लोकमें व्याप्त कार्माणवर्गणा के बीच में पड़जानेके कारण चारों ओरसे उस कार्मारण वर्गणाके यथायोग्य परमाणु पुरंजोंको खींच लेत है और इस तरहसे कार्माण वर्गणा के जितने परमाणुपुज जब तक चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंके साथ चिपटे रहते हैं तब तक उन्हें जैनदर्शन में 'कर्म' नामसे पुकारा जाता है तथा इस कर्म से प्रभावित होकरके ही प्रत्येक प्राणी अपने मन, वचन और शरीर द्वारा पुण्य एवं पापरूप कृत्य किया करता है अर्थात् प्राणियोंकी उक्त पुण्य एवं पापरूप कार्योंमें प्रवृत्ति कराने वाले ये कर्म ही हैं। प्राणियों की पुण्य एवं पापरूप कार्यों में प्रवृत्ति कर देने के बाद इन कर्मोंका प्रभाव नष्ट हो जाता है और ये उस हालत में चितशक्तिविशिष्ट तत्वोंसे पृथक होकर अपना वही पुराना कार्माणवर्गगाका रूप अथवा पृथ्वी आदि स्वरूप दूसरा और कोई पौद्गलिक रूप धारण कर लेते हैं । जैनदर्शन में कार्माण वर्गणा नामका चित्शक्ति से रहित तथा रूप, रस गंध और स्पर्श गुणोंसे युक्त के कारण पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तत्वोंका सजातीय एक पौद्गलिक तत्व स्वीकार किया गया है । यह तत्व बहुत ही सूक्ष्म है और पृथ्वी आदि तत्वोंकी ही तरह नाना परमाणुपुंजों में विभक्त होकर समस्तलोकाकाशमें सर्वदा अवस्थित रहता है। प्राणियों को मन, वचन और शरीर के जरिये पुण्य एवं पापरूप कार्यों में जो प्रवृत्ति देखी जाती है उस प्रवृत्तिसे उस कार्मार्गणा यथायोग्य बहुतसे परमाणुओं के पुंजके पुंज उन प्राणियों के शरीर में रहने वाले चित् शक्तिविशिष्ट तत्वोंके साथ चिपट जाते हैं अर्थात् efore तपा हुआ लोहेका गोला पानीके बीच में रङ्ग जाने से जिस प्रकार चारों ओरसे पानीको खींचता है siपर यह खासतौर से ध्यान में रखने लायक बात है कि इन कर्मों के प्रभावसे प्राणियोंकी जो उक्त पुण्य एवं पापरूप कार्यों में प्रवृत्ति हुआ करती है उस प्रवृत्तिसे उन प्राणियों के अपने २ शरीर में रहने वाले चित्शक्तिविशिष्टतत्व कार्माणवर्गणा के दूसरे यथायोग्य परमाणुपु जोंके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं और इस तरहसे चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंकी पूर्वोक्त शरीरसम्बंधपरंपराकी तरह उसमें कारणभूत कमसम्बंधकी परंपरा भी अनादिकाल से अविच्छिन्नरूप में चली भारही है। अर्थात् जिस प्रकार वृक्षसं बीज और बीज से वृक्षकी उत्पत्ति होते हुए भी उनकी यह परंपरा अनादिकाल से अविच्छिन्न रूपमें चली आ रही है उसी प्रकार कर्मसम्बंध से चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंका शरीरके साथ सम्बंध होता है इस संबद्धशरीरकी सहायता से प्राणी पुण्य एवं पाप रूप कार्य किया करते हैं उन कार्योंसे उनके साथ पुनः कर्मोंका बन्ध हो जाता है और कर्मोंका यह
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy