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________________ किरण ४-५] जैनसंस्कृतिको सप्ततत्त्व और षड्द्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश १८६ अनादि काल मे अविच्छिन्न रूपमें चली जा रही है। परलोक और मुक्ति दोनोंकी मान्यताको स्थान प्राप्त है। इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर के जैन संस्कृतिकी जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, साथ चितशक्ति विशिष्ट तत्वोंके आबद्ध होनेका संवर, निर्जरा और मोक्षस्वरूप सप्ततत्ववाली जिस कारण सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय, वैशेषिक पदार्थमान्यताका उल्लेख लेख में किया गया है उसमें जैन और बौद्ध इन सभी दर्शनोंमें स्वरूप तथा उक्त दर्शनोंको स्वीकृत इन पाँचों तत्वोंका ही समावेश कारणताके प्रकारकी अपेक्षा यपि यथायोग्य सत्- किया गया है अथोत सातत्वोंमें स्वीकृत प्रथम जीव चित्शक्तिविशिष्ट तत्वोंके आवद्ध होनेका कारण तत्वसे चितशक्तिविशिष्ट तत्वका अर्थ लिया गया है, अतिरिक्त पदार्थ है। द्वितीय अजीव तत्वसे उक्त कामांण वर्गणास्वरूप (४) उल्लिखित तीन सिद्धान्तोंके साथ २ एक चौथा अजीव तत्वकी सम्बंधपरम्परारूप मृल संसारको जो सिद्धान्त इन दर्शनों में स्थिर होता है वह यह है चौथे बन्ध तत्वमें समाविष्ट करके चित्रशक्तिविशिष्ठ कि जब चितशक्तिविशिष्ट तत्वोंका शरीर के साथ . तत्वके शरीरसम्बन्ध परंपरा रूप अथवा सुख दुःखसंबद्ध होना उनमें अतिरिक्त कारणके अधीन है तो परंपर.रूप संसारको इसीका विस्तार स्वीकार किया इस शरीरसंबंधपरंपराका उक्त कारण के साथ साथ गया है। तीसरे आस्रवतत्वम उक्त जीव और अजीव मलतः विच्छेद भी किया जा सकता है । परन्तु इस बीindiTIFU मल संसार में कारगा चौथे सिद्धान्तको मीमांसादर्शनमें नहीं स्वीकार किया . भूत प्राणियों के मन वचन और शरीर सम्बंधी गया है क्योंकि पहिले बतलाया जा चुका है कि पुण्य एवं पापरूप कार्योका बोध होता है। मीमांसा दर्शनमें शरीरसंबंधमें कारणभूत अशुद्धिके। तत्वव्यवस्था में बन्ध तत्वको चौथा और श्राव संबंधको अनादि होनेके सबब अकारण स्वीकार तत्वको तीसरा स्थान देनेका मतलब यह है कि बन्ध - किया गया है इसलिये उसकी मान्यताके अनुसार इस रूप संसारका कारण मानव है इसलिये कारणरूप संबंधका मर्वथा विच्छेद होना असंभव है। इन सिद्धान्तोंके फलित अर्थ के रूपमें निम्न श्रावका उल्लेख कार्यरूप बन्धके पहिले करना ही लिखित पाँच तत्व कायम किये जा सकते हैं चाहिये और चूंकि इस तत्व व्यवस्थाका लक्ष्य प्राणियों (१) नाना चित्रशक्तिविशिष्ट तत्व, (२) इनका शरीर का कल्याण ही माना गया है तथा प्राणियोंकी हीन संबंध परंपरा अथवा सुख-दुःख परंपगरूप संसार, और उत्तम अवस्थाओंका ही इस तत्व व्यवस्थासे हमें बोध होता है इसलिये तत्वव्यवस्थाका प्रधान आधार (३) संसारका कारण, (४) संसारका सर्वथा विच्छेद होने के कारण इस तत्वव्यवस्था में जीवतत्वको पहिला स्वरूपमुक्ति और (५) मुक्तिका कारण । चार्वाक दर्शन में इन पाँचों तत्वोंको स्वीकार नहीं स्थान दिया गया है। जीव तत्वके बाद दूसरा स्थान किया गया है क्योंकि ये पाँचों तत्व परलोक तथा अन अजीवतत्वको देनेका सबब यह है कि जीवतत्वके मुत्तिकी मान्यतासे ही सम्बंध रखते हैं । मीमांसा साथ इसके (अजीव तत्वके) संयोग और वियोग दर्शन में इनमेंसे आदिके तीन तत्व स्वीकृत । है। क्योंकि आदिके तीन तत्व परलोककी मान्यतासे तत्वोंमें संगृहीत किया गया है। सम्बंध रखते हैं और मीमांसा दर्शन में परलोककी सातवें मोक्षतत्वसे कर्मसंबन्ध परंपरासे लेकर मान्यताको स्थान प्राप्त है परन्तु वहाँ पर (मीमांसा शरीर संबंन्ध परंपरा अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप दर्शनमें ) भी मुक्तिकी मान्यताको स्थान प्राप्त न होने संसारका सवेथा विच्छेद अर्थ लिया गया है । के कारण अन्तके दो तत्वोंको नहीं स्वीकार किया चूंकि प्राणियोंकी यह अन्तिम प्राप्य और अविनाशी गया है । न्याय और वैशेषिक तथा वौद्धदर्शनमें इन अवस्था है इसलिये इसको तत्वव्यवस्था में अन्तिम पाँचों तत्वोंको स्वीकार किया गया,क्योंकि इन दर्शनोंमें सातवाँ स्थान दिया गया है। न तत्व स्वीकृत किये गये तथा संयोग और जिसे
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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