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________________ १८२ अनेकान्त [वर्ष शैलीमें करणानुयोगको उपयोगितावाद और द्रव्या- का अस्तित्व प्रमाणों द्वारा सिद्ध हो सकता हो अथवा नयोगको अस्तित्ववाद ( वास्तविकतावाद) कहना उनके अस्तित्वकी सिद्धि के लिये कोई प्रमाण उचित जान पड़ता है । यद्यपि जन संस्कृतिके शास्त्रीय उपलब्ध न भी हो। व्यवहार में करणानुयोगको आध्यात्मिक पद्धति और दर्शनों में आध्यात्मिकता और आधिभौतिकताका द्रव्यानुयोगको दार्शनिक पद्धति इस प्रकार दोनोंको भेद दिखलानेके लिये वक्त उपयोगितावादको ही अलग २ पद्धति के रूपमें विभक्त किया गया है परन्तु आध्यात्मिकवाद और उक्त अस्तित्ववादको ही आधि मैं अयोगितावाद और अस्तित्ववाद दोनोंको दाश- भौतिकवाद कहना चाहिये क्योंकि आत्मकल्याणको निक पद्धतिसे बाह्य नहीं करना चाहता हैं क्योंकि मैं ध्यान में रखकर पदार्थ प्रतिपादन करने का नाम प्राध्यासमझता हूँ कि भारतवर्ष के मांख्य, वेदान्त, त्मिकवाद और प्रात्मकल्याणकी और लक्ष्य न देते हुए मीमांमा, योग, न्याय और वैशेषिक आदि सभी भूत अर्थात् पदार्थों क अस्तित्वमात्रको स्वीकार करन वैदिक तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक आदि सभी का नाम माधिभौतिकवाद मान लेना मुझे अधिक अवैदिक दर्शनोंका मूलतः विकास उपयोगितावादके संगत प्रत त होता है। जिन विद्वानोंका यह मत है कि आधारपर ही हुआ है इस लिये मेरी मान्यताके समस्त चेतन अचेतन जगतकी सृष्टि अथवा विकास अनुसार करणानुयोगको भी दार्शनिकपद्धति मे बाह्य आत्मास मानना आध्यात्मिकवाद और उपयुक्त जगत नहीं किया जा सकता है। का सृष्टि अथवा विकास अचेतन अर्थात् जड़ पदार्थ जगत क्या और कैसा है ? जगतमें कितने पदार्थों से मानना आधिभौतिकवाद है उन विद्वानों के साथ का अस्तित्व है ? उन पदार्थोंके कैसे २ विपरिणाम मेरा स्पष्ट मतभेद है। इस मतभेदम भी मेग तात्पर्य होते हैं ? इत्यादि प्रश्नों के आधारपर प्रमाणों द्वारा यह है कि प्राध्यात्मिकवाद और आधिभौतिकबादके पदार्थोंके अस्तित्व और नास्तित्वक विषयमें विचार उनको मान्य अर्थ के अनुसार उन्होंने जो वे करना अथवा पदार्थों के अस्तित्व या नास्तित्वको स्वी- को आध्यात्मिक दर्शन और चार्वाकदर्शनको आधिकार करना अस्तित्ववाद (वास्तविकतावाद ) और भौतिक दर्शन मान लिया है वह ठीक नहीं है। मेग जगतके प्राणी दुःस्वी क्यों है ? वे सुग्बी कैसे हो सकते यह सष्ट मत है और जिसे मैं पहिले लिख चुका हूँ हैं ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर पदार्थोंकी लोक- कि सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय और वैशेकल्याणोपयोगिताके आधार पर प्रमाण सिद्ध अथवा षिक ये सभी वैदिक दर्शन तथा जैन, वौद्ध और प्रमाणों द्वारा प्रसिद्ध भा पदार्थों को पदार्थ व्यवस्था में चावोक ये सभी अवैदिक दर्शन पूर्वोक्त उपयोगितास्थान देना उपयोगितावाद समझना चाहिये। संक्षेप वादक अधारपर ही प्रादुर्भूत हुए हैं इसलिये ये में पदार्थोके अस्तित्वके बारे में विचार काना अस्तित्व- सभी दर्शन आध्यात्मिकवादके ही अन्तर्गत माने जाने वाद भार पदार्थोंकी उपयोगिताके बारेमें विचार करना चाहिये । उक्त दर्शनों मेंस किमी भी दर्शनका अनउपयोगितावाद कहा जा सकता है। अस्तित्ववादके यायी अपने दर्शन के बारेमें यह आक्षेप सहन करने आधार पर वे सब पदार्थ मान्यताको कोटि में पहुंचते हैं को तैयार नहीं हो सकता है कि उसके दर्शनका जिनका अस्तित्व मात्र प्रमाणों द्वारा सिद्ध होता हो, विकास लोककल्याणके लिये नहीं हुपा है और इसका भले ही वे पदार्थ लोककल्याणके लिये उपयागी सिद्ध भी सबब यह है कि भारतवर्ष सर्वदा धर्मप्रधान देश न हों अथवा उनका लोककल्याणापयोगितासे थोड़ा भी रहा है इसलिये ममस्त भारतीय दर्शनोंका मूल संबन्ध न हो और उपयोगितावादके आधारपर वे आधार उपयोगितावाद मानना ही संगत है। इसका सब पदार्थ मान्यताकी कोटि में स्थान पाते हैं जो लोक विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जारहा हैकल्याणके लिये उपयोगी सिद्ध होते हों भले ही उन 'लोककल्याण' शब्दमें पठित लोकशब्द 'जगत्का
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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