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________________ किरण ४-५] जैनसंस्कृतिकी सप्ततत्व और षड्द्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश १८१ - संस्कृतिको अपनाकर उल्लिखित अविवादी धर्मके पप्कृित बनाते हुए अधिकसे अधिक धर्म के अनुकूल प्राप्त कर सकता है । संस्कृतिको ही धर्म मान लेनकी बनाने के प्रयत्नमें लग जायेंगे तथा उनमें से अहंकार, भ्रान्तिपूर्ण प्रचलित परिपाटीस हिन्दू जैन आदि पक्षपात और हठ के साथ २ परस्परक विद्वेप, घृणा, सभी वर्गोका उक्त वास्तविक धमकी और झुकाव ही ईर्षा और कलहका खात्मा होकर सम्पूर्ण मानव नहीं रह गया है इसीलिये इन वर्गों में विविध प्रकार समष्टि में विविध संस्कृतियों के मद्रावमें भी एकता के अनर्थकर विकारों, पाखण्डों एवं रूढ़ियों को अधिक और प्रमका रस प्रवाहित होने लगेगा। प्रश्रय मिला हुआ है और इस सबका परिणाम यह मेरा इतना लिखनेका प्रयोजन यह है कि जिसे हुआ है कि जहाँ उक्त वास्त वक धर्म मनुष्य के जीवन लोकमें 'जैनधर्म' नामसे पुकारा जाता है उसमें से मर्वथा अलग होकर एक लोकोत्तर वस्तुमात्र रह दूरी २ जगह पाये जाने वाले विशुद्ध धार्मिक अंश गया है वहां मानवतासे विहीन तथा अन्याय और को छोड़कर सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यताओं अत्याचारसे परिपूर्ण उच्छल जीवन प्रवृत्तियोंके के रूपमें जितना जैनत्वका अंश पाया जाता है उसे सद्भावमें भी संस्कृतिका छद्मवेष धारण करने मात्रसे जैनसंस्कृति' नाम देना ही उचित है, इसलिये लेखक प्रत्येक मानव अपने को और अपने वर्गको कट्टर श.र्ष में मैंने जैनधर्म' के स्थानपर 'जैनप्तंस्कृति' धर्मात्मा समझ रहा है इतना ही नहीं, अपनी शब्दका प्रयोग उचित समझा हे और लेखके अन्दर संस्कृतिस भिन्न दुसरा सभी संस्कृतयोंको अधर्म मान भी यथास्थान धर्मके स्थानपर संस्कृति शब्दका ही कर उनमें से किसी भी संस्कृतिके माननेवाले व्यक्ति प्रयोग किया जायगा। तथा वर्गको धर्म के उल्लिखित चिन्ह मौजूद रहनेपर २ विषयप्रवेश भी वह अधर्मात्मा ही मानना चाहता है और मानता किमी भी संस्कृति के हमें दो पहल देखनेको है और एक ही संस्कृतका उपासक वह व्यक्ति भी मिलते हैं-एक संस्कृतिका आचार-संबन्धी पहलू और उसकी दृष्टि में अधर्मात्मा ही है जो उस संस्कृतिके दूमरा उमका सिद्धान्त-सबन्धी पहलू। नियमों की ढोंगपूर्वक ही सही, आवृत्ति करना जरूरी जिसमें निश्चित उद्देश्यकी पूर्ति के लिये प्राणियों के नहीं समझता है, भले ही वह अपने जीवनको कर्त्तव्यमार्गका विधान पाया जाता है वह संस्कृतिका धर्ममय बनाने का सच्चा प्रयत्न कर रहा हो । इस तरह आचार संबन्धी पहल है जैनसंस्कृति में इसका व्यवस्थाआज प्रत्येक वर्ग और बर्ग के प्रत्येक मानवमें मान- पक चरणानुयोग माना गया है और आधुनिक भाषावताको कलंकित करनेवाले परस्पर विद्वेष, घृणा, ईर्षा प्रयोगकी शैली में इसे हम 'कर्तव्यबाद' कह सकते हैं। और कलह के ददनाक चित्र दिखाई दे रहे हैं। संस्कृति के सिद्धान्त · रबन्धी पहल में उसके ___ यदि प्रत्येक मानव और प्रत्येक वर्ग धर्मकी (संस्कृतिक) तत्वज्ञान ( पदाथ व्यवस्था ) का समावेश उल्लिखित परिभापाको ध्यान में रखते हुए उसे संस्कृति होता है। जैनमस्कृति में इसके दो विभाग कर दिये हैंका साध्य और संस्कृतिको उसका साधन मान लें तो एक सप्ततत्वमान्यता और दूसरा पडव्यमान्यता। उन्हें यह बात सरलताके साथ समझमें आजायगी सप्ततत्वमान्यतामें जीव, अजीव, आम्रव, बन्ध, कि वही संस्कृति सच्ची और उपादेय हो सकती है संवर, निजरा और मोक्ष इन सान पदार्थोंका और तथा उस संस्कृतिको ही लोकमें जीवित रहनेका अधि- षड्व्य मान्यतामें जीव, पुद्गल, धर्म, अधम, आकाश कार प्राप्त हो सकता है जो मानव जगतको धर्मकी ओर ओर काल इन छह पदार्थों का समावेश किया गया अपना करा सके और ऐसा होने पर प्रत्येक मानव है । जैनसंस्कृतिमें पहली मान्यताका व्यवस्थापक तथा प्रत्येक वर्ग अपने जीवनको धर्ममय बनाने के लिये करणानुयोग और दूसरी मान्यताका व्यवस्थापक अपनी संस्कृतिको विकारों, पाखण्डों और रूढ़ियोंसे द्रव्यानुयोगको माना गया है। आधुनिक भाषाप्रयोगकी
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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