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________________ १८० अनेकान्त [ वर्ष ८ तया स्याद्वाद महाविद्यालयको ही देन है और जो उसमें क्रियाशीलता दिख रही हैं वह उक्त संस्थाओं के संचालकों की चीज है । आशा है इन संस्थाओं से मिलती रहेगी। समाज और साहित्य के लिये उत्तरोत्तर अच्छी गति विद्यालय बहुत उन्नति की है। कई वर्ष से आप गवर्नमेन्ट सर्विस से रिटायर्ड हैं और समाजसेवा एवं धर्मोपासना में ही अपना समय व्यतीत करते हैं। आपका धार्मिक प्रेम प्रशंसनीय है। यहां अपने गुरु जनों और मित्रोंके सम्पर्क में दो दिन रह कर बड़े आनन्दका अनुभव किया। स्याद्वादमहाविद्यलय के अतिरिक्त यहाँकी विद्वत्परिषद् जयधवला कार्यालय और भारतीयज्ञानपीठ प्रभृति ज्ञानगोष्ठियाँ जैनसमाज और साहित्यके लिये क्रियाशीलताका सन्देश देती हैं। इनके द्वारा जो कार्य हो रहा है वह वस्तुतः समाजके लिये शुभ चिन्ह 1 तो समझता हूँ कि समाज में जो कुछ हरा-भरा दिख रहा है वह मुख्य इस प्रकार राजगृहकी यात्राके प्रसङ्ग में आरा और बनारसकी भी यात्रा हो गई और ता० २४ मार्चको सुबह साढ़े दस बजे यहां सरसावा हम लोग सानन्द सकुशल वापिस गये । ३०-४-४६ वीर सेवा-मन्दिर सरसावा - दरबारी लाल, जैन कोठिया न्यायाचार्य ) जैनसंस्कृति की सप्ततत्त्व और षद्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश ( ले० - जैनदर्शन शास्त्री पं० बंशीधरजी जैन, व्याकरणाचार्य ) नं० १ प्रास्ताविक अखण्ड मानव- समष्टि को अनेक वर्गों में विभक्त कर देने वाले जितने पंथभेद लोकमें पाये जाते हैं। उन सबको यद्यपि 'धर्म' नामसे पुकारा जाता है, परन्तु उन्हें 'धर्म' नाम देना अनुचित मालूम देता है क्योंकि धर्म एक हो सकता है, दो नहीं, दोसे अधिक भी नहीं, धर्म धर्म में यदि भेद दिखाई देता है तो उन्हें धर्म समझना ही भूल है । अपने अन्तःकरण में क्रोध, दुष्टविचार अहंकार, छल-कपटपूर्ण भावना, दीनता और लोभवृतिको स्थान न देना एवं सरलता, नम्रता और श्रात्मगौरव के साथ २ प्राणिमात्रके प्रति प्रेम, दया तथा सहानुभूति यदि सद्भावनाओं को जाग्रत करना ही धर्मका अन्तरंग स्वरूप माना जा सकता है और मानवताके धरातल पर स्वकीय वाचनिक एवं कायिक प्रवृत्तियों में हिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यं तथा अपरिग्रह वृत्तिका यथा योग्य संवर्धन करते हुए समता और परोपकारकी ओर अग्रसर होना धर्मका बाह्य स्वरूप मानना चाहिये । पन्थ भेदपर अवलंबित मानवसमष्टिके सभी वर्गोंको धर्म की यह परिभाषा मान्य होगी इसलिये सभी वर्गों की परस्पर भिन्न सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यताओं - जिन्हें लोकमें 'धर्म' नाम से पुकारा जाता है-के बीच दिखाई देनेवाले भेदको महत्व देना अनुचित जान पड़ता है । मेरी मान्यता यह है कि मानव समष्टिके हिन्दू, जैन, बौद्ध, पारसी, सिख, मुसलमान और ईसाई आदि वर्गों में एक दूसरे वर्ग से विलक्षण जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यतायें पाई जाती हैं उन मान्यताओंको 'धर्म' न मानकर धर्म-प्राप्तिकी साधनस्वरूप 'संस्कृति' मानना ही उचित है । प्रत्येक मानव, यदि उसका लक्ष्य धर्मे प्राप्ति की ओर है तो लोकमें पाई जानेवाली उक्त सभी संस्कृतियों में से किसी भी
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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