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________________ २० अनेकान्त [ वर्ष ८ वीर भगवानकी देन है। अतएव मारे संसारके प्राणियोंके तथा मुक्तिका भी। अतएव मारमा ही खुद गुरु है-यानी प्रति प्रेम या इश्कका भाव रखना हमारा कर्तव्य है और उसकी उन्नति वा अवनति उसीके हाथ में है। पथप्रदर्शक हमारे रोग का यही इलाज है: निमित्तमात्र हैं। इसी तत्वक अनुसार जैन धर्म में ईश्वरके "इश्क तबियतमें जीस्तका मज़ा पाया। __हाय कुछ भी सत्ता नहीं है। न तो वह दुःख ही दे सकता बदकी दवा पाई दबे दवा पाया।" है न सुख । संसारकी सृष्टिका न तो वह कारण है और न भगवान महावीरने संसारकी गुन्थियोंको तथा उनके उमे भेट, स्तुति आदिके जरिये रिश्वत देकर खुश ही सुनमानेका वर्णन बड़े ही रोचक और वैज्ञानिक ढंगमे किया जा सकता है। मनुष्य खुद अपने हिन या अनहित किया । जगत मुख्यत: जीव और अजीव, इन दो को समझकर योग्य कार्यका आश्रय कर सकता है। अतएव पदार्थोंका समुदाय है। यह स्वयम्भू अनादि और अनन्त उसके लिए आवश्यक है कि वह सदाचार, सद्विवेक-बुद्धि है-इसी तरह न तो इन पदार्थीका अन्त ही हो सकता है द्वारा अपनी सारी क्रियाको नियंत्रित करे तथा महाऔर न ही नए पदाथ उत्पन्न हो सकते हैं अलबत्ता पर्याय प्रभावी कर्मबन्धनोंको सच्चारित्रद्वारा काटे अन्यथाअपने अच्छे या अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। मिट्टीमे घड़ा, और घड़े -बुरे कम बंधते रहने के कारण वह प्रात्म ल्याणसे कोसों दूर में कोई और वस्तु बनाई जा सकेगी-किन्तु हर हालतमें हो जायगा । मुसीब का पहाड उसपर टूट पड़ेगा। लालसा मिट्टी मिट्टी ही रहेगी। अजीवको परिभाषामें जड़ या कम और अतृप्त तृष्णाक कारण व्यथित रहेगा और इस तरह के नाम भी याद किया जाता है। संपारमें जीवोंका परि- अनन्त काल तक दुःखोंके सागरमें गोते लगाता रहेगा यह भ्रमणा कर्मक संसर्गसे ही होता है। जीवोंकी विवध श्रव-हैन जर काँका प्रभाव । कर्म एक नशा है। इसी स्था ऊँच-नीच होना, दुखी होना, सुपम्पन या दरिद्री नशीली वस्तक सेवनसे उसका यह लोक और परलोक होना, सुन्दर या कुरूप हाना--सारांश जीवों के इन स्वांगों दोनों बिगदते हैं । अताव इस नशेसे बचने के लिए, में कहीका हाथ है। कर्मके संयोगमे जीव अशुद्ध है कीवों आत्मिक प्रदेशोंको सकम्प न होने देना अर्थात राग, द्वेष, काम कम होके कारण या यों कहा जाय कि प्राणी क्रोध आदि विभावोंके आधीन न होना एक ज्ञाना श्रापमा अपने काँका जिम्मेदार है--जैसा करेगा वैमा उसे भरना के लिए श्रेयस्कर है:होगा । 'बोये पेड़ बबूल के तो श्राम कहाँप खाय' इसलिए "अमल मे ज़िन्दगी बनती है, जन्नत भी जहन्नुम भी।" प्राणीको चाहिए कि वह अपने स्वभावानुकूल कार्य करे, इसमें शक नहीं कि संसारी प्रारमाएँ अनादिकालसे अपनी भलाई और बुराई का कारण खुद वह है । उसका जड़ वा कर्म के साथ संलग्न चली पा रही हैं। फिर भी स्वर्ग वही बना सकता है, या अपनी वैभाविक कृतिक मारमा प्रामा है और कर्म कर्म । दोनों अपने अपने स्व. कारण खुर खुदाको जहममें भी पहुंचा सकता है । मन- भाव में स्थित है। पारमा प्रमूर्तिक, ज्ञाता, अखण्ड और वचन-कायकी हरकतों द्वारा उसके अरम-प्रदेश चचल वा चेतन स्वभाव वाला है, और कर्म मूर्तिक तथा पौद्गालक सकंप हो उठते हैं और कर्म-जोंको श्राकर्पित कर लेते हैं। तथा ज्ञानशून्य है। इसीलिए इस संसारी श्रात्माको कर्म-रजोंका अाकर्षण उसके संसारकी सृष्टि करता है, अतः परमामाकी अवस्था तक पहुंचाना ही हमारा पुरुषार्थ है। एव इन कर्म-पिण्डोस छूटना मोक्ष । नर कुछ करनी यही इसकी स्वाभाविक अवस्थाका लाभ "वस्तु स्वभावो करे तो नरका नारायण होय" इस चीजको जैन धर्म में धर्म:" के अनुसार चलनेसे ही होगा । इसी मान्यताकी विशेष रूपसे स्पष्ट किया है-चुनांचे समाधितन्त्रमें साफ दृष्टिसे सारे जीव परस्पर समान हैं । गुण-स्वभावकी अपेक्षा तौर पर कहा: अनन्त सुख, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्यमय "नयत्यात्मानमात्मैव जन्म-निर्वाणमेव च । परमशुद्ध बुद्ध हैं । ऐसे शुद्ध एवं सिद्ध जीवोंके अलावा गुरुरात्मात्मनस्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थतः।" संसारी जीव भी हैं, जो शक्ति या शुद्ध निश्चय नयकी भावार्थ-भारमा ही खुदके परिभ्रमणका कारण है अपेक्षा उपरोक्त गुणोंके धारी हैं, किन्तु अनादिकाल से कर्म
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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