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________________ किरण १] भगवान महावीर और उनका सन्देश जीवोंके कोमल व स्वाभाविक परिणामोंकी विराधना है, बड़ाइयोंको लाकर दुष्टोंको सजा और गरीबों, प्रशक्तों करें तो अवश्यम्भावी हमारी यह क्रिया दुःखों और संमार व असहायोंका रक्षण कर सकता है, तो यह कहना कि का कारण बनेगी। हमें नैतिक दृष्टिसे भी दूसरोंको मताने 'जैनधर्म कायरोंका धर्म है' और इससे प्रभागे भारतवर्षकी का क्या हक है ? यदि भाप सताये जाना पपाद नहीं अवनति हुहै, सरापर ग़लत है । यदि ऐसा होता तो करते तो प्रापको दूसरोंको सतानेका क्या हक पहुंचता है ? सम्राट चन्द्रगुप्त, प्रसिद्ध ग्रीक योद्धा सिल्युकमको अपनी यही कारण है कि भगवान महावीरने पशुवध और नरमेध तलवारका मज़ा न चस्वात, राजा खारवेल, महामण्डलेश्वर आदिके विरुद्ध जोरदार भावाज़ उठाई, मांसभक्षण आदि अमोघवर्ष प्रभृति वीरपुंगवोंकी वीर-गाया माज जैनशास्त्रों का निषेध किया, जगतको शान्ति के लिए संकलमी हिमाका में पढ़ने को न मिलतीं। छोड़ना अत्यन्त भावश्यक है। जब तक हम हमें और वास्तवमें इस देश और देशवामियोंकी अवनतिका समूची जीव-जातिको न समझे, उसके स्वाभाविक तथा कारण जैनधर्म या स्वाभाविक मानवधर्मका त्याग करना न्याय्य स्वखोंका लिहाज नहीं रखा जा सकता और जगत्में है। ब्राह्मण ऊँचे और सबसे ऊंचे है, इसलिए सारी सत्ता शान्तिका माम्राज्य नहीं फैलाया जा सकता । अतएव का संचालन उन्हींके हाथों होना चाहिए, इस वृथाभिमान प्रत्येक मानवका कर्तव्य है कि वह संकल्पी हिंसाका त्याग ने और कषायोंके वशीभूत होकर एक दूसरे को नीचा करे। दिखाने के लिए अपने धर्म, देश और सर्वस्वकी बाजी गृहस्थ, दैनिक कार्यों में श्रासक्ति न रखने हुए यदि लगा देने के कारण तथा (Divide and rule) "फूट श्रावश्यकीय क्रियाओं को करता रहे तो बहु-अंशमें उसके का बीज बोश्रो और हकूमत करो" की नीतिका शिकार हो परिणाम स्वाभाविक रहते हैं। इसलिए वह पूर्णरूपसे जाने के कारण तथा हमसे कुछ हो नहीं सकता, होनहार ही दोषों या पापोंका जिम्मेदार नहीं है, कुछ अंशमें अलबत्ता ऐसी है-भगवान ही सब कुछ करने वाला है, आदि ऐसा प्रयत्नशील, सदाचारी और सद्विचारी मानव सांसा- कायरतापूर्ण विचारों के कारण, तथा ऐयाशी, लोभ मादि रिक क्रियाओंके करते रहने के कारण-कुछ बभाविक अव. सैंकडों चीजोंके कारण यह देश रसातजको पहुंचा है। स्थाको प्राप्त होता है । अतएव इसके निवारण के लिये जयचन्द, अमीचन्द, मीर जाफर जैस देशद्रोहियोंकी यहाँ तथा अत्यल्प दोषोंकी मात्रा और भी घटती रहे इसलिए कमी नहीं रही। इकबाल कहते हैं:उसे षट् कार्य नित्य रोज ही करने होते हैं - यानी देवपूजा, जाफर अज़ बंगाल व सादीक आज दकन, गुरुओंकी भक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप श्रादिको पाचरण में नंगे प्रादम नंगे दीन व नंगे वतन । बाना पड़ता है। इन क्रियाओंका यह मतलब नहीं कि वे अतएव जैनधर्मको अवनतिका कारण बतलाना अन्याय अर्थहीन तथा निस्सार क्रियाओंको करे, बल्कि गुणोंकी है तथा सस्यका गला घोंटना है। प्राप्तिके लिये वह गुणियोंका आदर करे, ज्यादासे ज्यादा जो भी हो, इतना श्रापानीसे कहा जा सकता है कि रूपमें अपने परिणामोंको स्वाभाविक बनाए और इन भगवान महावीर के अहिंसा प्रयोगने न सिर्फ उस समय क्रियामा विशेष सावधानी रखे । सयको अपनी ओर आकर्षित किया किन्तु अब भी इसी सांसारिक क्रियाओंमें रत न रहना, यह मुख्य बात अमोघशक्ति का हिन्द नेता महात्मा गांधी बड़ी कामयाबी है। प्रासक्ति जीवकी वैभाविक अवस्था है और यह अवस्था से स्वतंत्रता संग्राममें उपयोग कर रहे है । अहिंसा दुःखका मूल और संसारकी जननी है। यदि चक्रवर्तीके प्रारमाका स्वभाव है. इसलिए वह हितकारी है। प्राकृतिक साम्राज्यका भोगी अपनी सम्पदा और भोगोंमें लिप्त नहीं होनेके कारण खुदको और जगतके सारे जीवों के लिए है तो उसकी क्रियाएँ अवश्य ही सराहनीय है । अतएव शान्तिदाई है। अहिंसास ही जगत्का कल्याण हो सकता वीरानुयायी, न्यायमार्गका पालन करते हुए जब चक्रवर्ती है तथा इसे अपनानेसे जगतके सारे व्यवहार सुन्दरतासे तक बन सकता है, धर्म, राष्ट्र और देशकी सेवा कर सकता बन सकते हैं । अहिंसा जगतके लिए महान् सन्देश और
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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