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________________ किरण 1 भगवान महावीर मौर उनका सन्देश २१ रजके चिपके होनेसे विकसित हैं । इनकी यह स्थिति है। अब वह सिद्धिप्राप्त परमात्माकी भक्तिसे अपने प्रारमोवैभाविक अवस्थाकी तीवतापर निर्भर है। इन संसारी वर्षमें लग जाता है। उसकी नैमित्तिक व नित्य क्रियानों में जीवोंमें इनके परिणामोंकी मशुद्धता मादिमें बहुत कुछ मानमी पड़ जाती है। पर वह पूजन, सामायिक, भालोअन्तर पाया जाता है। बहुतसे जीव अत्यन्त रागी, महा. चना व्रत नियम पालन मादिमें बेजान मशीनकी तरह मादि होते हैं, बहतसे कम मात्रामें होते हैं या नहीं रहता, बल्कि उसे सांसारिक क्रियाएं करते और चन्द उत्तरोत्तर वैभाविक अवस्थाको हटाकर अपनी हुए भी इन शुभ तथा शुद्ध भावोंको प्रदान करनेगळी स्वाभाविक अवस्थाके प्रति पहुँचने में प्रयत्नशील होते हैं। निस्य नैमित्तिक क्रियानों में एक खास मजा भाने लगता है। इसलिये स्पष्ट है कि मुक्त होनेका अर्थ जीवका अपनी भारमगुणोंके विकसित होते रहने के कारण इन चीजों में स्वाभाविक अवस्थाको प्राप्त होना है। इसी शुद्ध, परम प्रवणनीय मानन्दकी प्राप्ति होने सगती है। वह चतुर शान्त, अनन्त सुख, ज्ञान वीर्यमयी पवित्रामाको परमात्मा पुरुष प्रेम समुद्र में इस जाता है-यही उसके जीवनका या ईश्वर माना जा सकता है, और बाकी संमारी जीव एकमात्र लक्ष्य रहता है:'वन्दे तद्गालब्धये' अर्थात् इन गुणोंकी प्राप्तिके डूबै सो बोले नहीं, बोले सो अनजान । उद्देश्यसे स्तुति, उपासना, भारापना, श्रद्धा, पूजन, गहरो प्रेम समुद्र कोऊ, डूबै चतुर सुजान ॥" वन्दना भादिमें रत रहते हैं। जैनियोंकी मूर्तिपूजा, सामा- विरले पुरुष ही भावादिकी तरफ अग्रसर होते है यिक, ध्यान, प्रतिक्रमण मादि क्रियाएँ उसी समय सारभूत और जितनी देर यह भवस्था टिकती है वह जीवन्मुक्त कहलाती हैं जब देवल इसी उद्देश्यको लेकर पूजक, पूना समझे जा सकते हैं। के अमली मैद नमें उतरा हो। इन शुद्धामामोंकी भक्ति- वीर भगवानने जीवों के कल्याणको लयमें रखकर श्राराधकको अपनी स्वाभाविक अवस्थाकी याद दिलाती है। अनेकान्तवादका बड़ा ही मौलिक उपदेश दिया है। वह अपने स्वरूप-चिन्तनमें मग्न होने का यन्त्र करता रहता भनेकान्तवाद जैनधर्मकी मारमा है । जनताको चामिक है, उसकी परिणति शुमसे शुद्धताकी तरफ होने लगती असहिष्णुताकी जसिर्फ भनेकान्तवाद ही काट सकता है। है-अर्थात अपने शुद्ध स्वरूपके पानसे उसे असीम अानंद इस सिद्धान्तके द्वारा दृष्टि में दोष बाकी नहीं रहता । सत्य प्राप्त होने लगता है। अब दूसरी तरफ वह प्राकर्षित नहीं का पता भाखानीस चल जाता है और वस्तु स्वभावके होगा। कहा भी है: समझने में उसे धोखा नहीं होता। विविध दर्शनोंने संसार "पीत्वा पयः शशिकरचतिदुग्धसिन्धोः की विविध गति पदार्थको क्षणक्षणमें नाश होना आदि सारं जलं जननिधेरसितुं क इच्छेत् ।” माना है, तो कहीं द्वैत अद्वैतका झगडा खदा किया है, तो जैसे क्षीरसमुद्रके उज्वल मधुर जलको पीनेवाला कहीं केवल माया और भ्रम मात्र ही जगत् समझा गया भी खारे जखको पीने की इच्छा नही करेगा। है। किन्तु अनेकान्तवादके जरिये वस्तु स्वभावकी काफी ने भी एक जगह इसी प्राशयको बड़ी अच्छी छानबीन होती और परम्परविरोधी दृष्टिकोणोंका साहचर्य तथा समन्वय होनेसे वास्तविकताका पता चल जाता है। नैनन बसी, पर-छवि कहाँ समाय। अनेकान्तकं द्वारा भासानीसे समझमें आ सकता है कि निखि, आप पथिक फिरि जाय ॥" द्रव्य-दृष्टि द्वारा वस्तु नित्य है, परन्तु पर्याय दृष्टि द्वारा देसने एक बार परमात्माके स्वरूप निस्य भी, इसी तरह प्रतिपल पर्याएँ परिणमनशील गेंको दूसरा रूप किसी तरह भी होती रहती हैं, और मूलवस्तुका स्वभाव जैसाका तपाही यह विवेकशील हो जाता है। बना रहता है । वस्तु परीक्षण के इस उदार शाखको यदि परात्मा बन जाता है। इस अपनाया जाए तो जगत मेंसे अनुदारता एवं संकीर्णता, र विवेकको लिए हुए होती धार्मिक असहिष्णुता श्रादिका मुंह काला हो जावे ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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