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________________ २२ अनेकान्त [वर्ष ८ परस्परा रहिकोणको सममने कारण प्रेमकी अभिवृद्धि होगा। परमात्मा हमारे ही अन्दर विराजते है। इसी तथा एक दूसरोंके प्रति प्रादरभाव पैदा हो जाये । जैन 'भा मानुभूतिको--प्रात्मप्रतीतिको ससा सम्यग्दर्शन कहा शानोंमे इसका विशद वर्णन मानकर इसकी ताविक उप. गया है। वही हमारा स्वभाव है । इसी में सच्चे सुखके योगिता भनी भांति सिद्ध हो सकती है : भसीम प्रानन्दका अनुभव होगा। "आँधी पाई ज्ञानकी, ईभरमकी मीत । 'मुढा देउलि देउण विण वि सिलि लिप्पड चित्ति । माया टाटीद गई, बगी नामसे प्रीत ॥ दो देउलि देउ जिणु, सो बुज्झति सम चित्ति ॥" को भी हो. भगवानने पनयोंके गवरूपको, संसार --योगीन्दु देव की भनित्यता तथा व्यवस्थाका पुद्गल पिया और उसके हे मूरख ! देव देवजयमें नहीं, पाषाण शिला, लेप, सामर्य, प्रभाव मादिका बड़ा मच्छ। विश्लेषण किया है। चित्र धादिमें देव नहीं, किंबहुना, जिन भगवान देहरूपी इसी तरह व्यवहार सम्यग दर्शनका और उसके अंगोंमें देवावयमें ही विराजते हैं। हम चीत्रका समचित्त होकर समाजशाम, राजकारण, अर्थशास एवं मानस-विज्ञानके अनुभव करनेकी आवश्यकता मात्र है। अनुभूत तबको बदे सरल तरीकेसे समझाया । सार्व- इसी प्रात्मदर्शन या परमात्म-स्वरूपके अवलोकन या जनिक प्रेमके जरिये संगठनका मन्त्र फूका। सबके प्रति अनुभूतिसे उसे वचन भगोधर सुखकी प्राप्ति हो जाती है। सरव्यवहारकी शिक्षा दी गई । दूसरोंके प्रति दुःख उसके हृदय-बीणाकी तारें मानन्दस निनादित हो उठती सहन करने में भी भात्मिक सुखका अनुभव होना चाहए हैं। प्रेमका पवित्र सोता बहने लगता है और उत्तरोसर ऐसा बतलाकर सेवा-मार्गका सादर्श अपस्थित किया जिससेm गया है। दूसरों दोषोंकी पर्दादारी करना सम्यग्दृष्टिका ___"प्रेम सदा बडियो करै, यों शशिकला सुवेष । कतम्य बन जाता है, इसबिए संसारके भाकुलित प्राणियों पै पूनो वामें नहीं, ताते कबहुं न सेष ॥ पर एहसानका बोझ कुछ ऐसा हो जाता है कि वह प्राकुजित मानव स्वयं पथभ्रष्ट होनेसे ही नहीं बचना किन्तु इम प्रेमके अगाध तथा अथाह सागरमें विरले अपने भाइयोंके वारसत्यको देखकर न्यायमार्गका भाचरण पुरुष ही डूबना जानते हैं। 'पारमा भूतिका आनन्द वह बड़े धैर्य और उत्साहसे करने लगता है। सत्यपर उसकी ही जाने--जिसने उसे पाया है, 'लुत्फ मय सूने पीही श्रद्धा अमावासहीनोमाती। वह परीक्षाप्रधानी बन नही जाहिद' वाली बात।। या मानन्द गूगेके भाता है। 'मैं' का मिथ्या अभिमान या जाति, कुल, तरहहै:विद्या, रूप मादिका गर्व और धमगर उसे फिरने महीं "ज्यों गंगो मीठोफसको रस अन्तरगत ही भाव। पाता और इस तरह अनायास ही पैदा हो जाता। बीर मन बानीको अगम भगोचर, सो जानै जो पावै॥" भगवानने जैन दर्शनका निचोद सुमधुर तथा अमृतमय इसी सीढीपर पदकर उसे अनुभव होने लगता' प्राध्यात्मको बतलाया। परमात्मामें और उसमें एकदम साम्य है । इस र "सम्यगदर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः" सम्बन्धको वा परम उपादेय देखने लगता ". प्रात्माको इस सूत्र में बतलाया है कि योग्य अर्थात् जैसी वस्तु इसी मारमप्रतीति वा भारमबोधके पानी है उसे वैसा ही देखना, वैसा ही जानना और उसी अनु- ज्ञान या सम्यग्ज्ञान होता। इसीक सार वर्तन करना ही मोक्षका सचा रास्ता । सम्यग्दर्शन जाता है। इसके होते ही पाप-पर, सीमा वास्तवमें पास्माका स्वभाव है--निजी सम्पत्ति है। इस 1--संशयका यही कार गुआमा-स्वभावकी अपेक्षा --संशयको यहाँ कोई गुआइश.. खजानेकी कुछजी-सीके पास है । इसे दूलनेकी भाव. चेतनका उत्तर और दक्षिण । उनका भाव. चतनका उत्तर भार दापण 'ज्ञान, अनन्त वीर्यमय श्यकता नहीं। दुनियाकी खाक भी यदि हम छ.नते फिरें पाताबका सा अन्तर से दिन तो भी में भामदर्शन या मारमबोध हमारे ही अन्दर अन्तरंग शदिका कारण ... किन्तु अनादिकानसे कर्म
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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