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________________ किरण ८-९ ] गोम्मटसार और नेमिचन्द्र अन्तकी गाथाएँ' भी शामिल है, प्रन्थका अंग (३७५) बंधदेवाउगुवसमसद्दिट्ठी बंधिऊण आहारं । बनाया गया है और कहीं-कहीं उनमें कुछ क्रमभेद सो चेव सासणे जादो तरिसं पुण बंध एक्को दु॥२२ भी किया गया है । यहाँ मैं इस विषयका कुछ विशेष परिचय अपने पाठकोंको देदेना चाहता हूँ, जिससे तस्से वा बंधाउगठाणे भंगा दु भुज्जमाणम्मि । उन्हें इस ग्रन्थकी संग्रह-प्रकृतिका कुछ विशेष बोध मणुवाउगम्मि एकको देवेसु ववणगे विदियो ॥२३ हो सके: (३७६) मणुवणिरयाउगे गरसुराये गिरागबंधम्मि। रायचन्द्र-जैनशास्त्रमालाके संवत् १९६९ के तिरयाऊगा तिगिदरे मिच्छन्वणम्मि भुज्जमणुसाऊ॥२८ संस्करणमें इस अधिकारकी गाथा-संख्या ३५८ से ३९७ तक ४०दी है; जबकि आराकी उक्त ग्रन्थ-प्रतिमें 4 (३८०) पुव्वुत्तपणपणाउगभंगा बंधस्स भुज्जमणुसाऊ । वह ४८ या ४९ पाई जाती है। आठ गाथाएँ जो अगगतियाऊसहिया तिगतिगचउगिरयतिरियाऊण३० उसमें अधिक हैं अथवा गोम्मटसारमें जिन्हें छोड़ा (३६०)विदियं तेरसबारसठाणं पुगारुत्तमिदि विहायपुणो गया है वे निम्न प्रकार हैं। गोम्मटसारकी जिस दसु सादेदरपयडी परियगादो दुगद्गा भंगा ।।४१ गाथाके बाद वे उक्त ग्रन्थ प्रतिमें उपलब्ध हैं उसका नम्बर शुरूमें कोष्टकके भीतर देदिया गया है:कोएकके भीतर देदिया गया है। उक्त ग्रन्थतिकी गाथाएँ नं० १५, १६, १७ गोम्मटसारमें क्रमशः नं.३६८, ३६९, ३७० पर पाई (३६०) घाई तियउज्जोवं थावरवियलं च ताव एइंदी। __ जाती हैं; परन्तु गाथा नं. १४ को ३७६ नम्बरपर गिरय-तिरिक्ख दु सुहुमं साहरगो होइ तेसट्ठी॥४ दिया है, और इस तरह गोम्मटसारमं क्रमभेद किया (३६४)गिरयादिसु भुज्जेगं बंधुदगं बारि बारि दोगणेत्थ गया है । इसी तरह २५, २६ नं० की गाथाओंको भी पुणरुत्तसमविहीणा आउगभंगा हु पज्जेव ॥ क्रमभेद करके नं० ३७८, ३७७ पर दिया है। गिरयतिरयाणु गोरइ यणहाउ तिरियमणुयाऊ य । आराके उक्त भवनमें एक दूसरी प्रति भी है, जिसमें तीन गाथाएँ और अधिक हैं और वे इस तेरिच्छियदेवाऊ माणुसदेवाउ एगेगे ॥१०॥ प्रकार हैं:१ अन्तकी दो गाथाएं वे ही हैं जिनमेंसे एकमें इन्द्रनन्दीसे लथम गिधिमिले बदाउसि मागासीगदी एग । मकल सिद्धांतको सुनकर कनकनन्दिके द्वारा सत्वस्थानके रचे मणुवगिरयाऊ भंगु पज्जत्ते भुज्जमागणिरयाऊ ॥१५॥ जानेका उल्लेख है और दूसरी 'जह चक्केण य चक्की' नामकी वह गाथा है जिसमें चक्री की तरह पटग्वण्ड गिरयदुगं तिरियदुगं विगतिगचउरवख जादि थीणतियं । साधने की बात है और जिससे कनकनन्दीका भी 'सिद्धांत- उज्जोवं प्राताविगि साहारगा सुहम थावरयं ॥३॥ चक्रवर्ति' होना पाया जाता है-श्राराकी उक्त प्रतिमें मझड कसाय संदं थीवेदं हस्सपमुह छक्कसाया । अन्यको 'श्रीकनकनन्दि-मैद्वान्तचक्रवर्तिकृत' लिखा भी पुरिसो कोहो मागो अणियट्टी भागहीण पयडीओ ॥४० है । ये दोनों गाथाए कर्मकाण्डकी गाथा नं० ३६६ तथा ३६७ के रूम पीछे उद्धत की जा चुकी हैं। हालमें उक्त मत्वस्थानकी एक प्रति मंवत् १८८७ २ संख्याङ्क ४६ दिये हैं परन्तु गाथाएँ, ४८ हैं, इससे या तो की लिखी हुई मुझे पं० परमानन्दजीके पाससे देखने एक गाथा यहां छूट गई है और या संख्याङ्क गलत पड़े को मिली जो दूसरे त्रिभंगी आदि ग्रन्थोंके साथ है । हो सकता है कि 'गिरयाऊ-तिरियाऊ' नामकी वह सवाई जयपुर में लिखी गई एक पत्राकार प्रति है और गाथा ही यहां छुट गई हो जो अागे उल्लेखित एक जिसके अन्तमें ग्रन्थका नाम 'विशेषसत्तात्रिभंगी' दूसरी प्रतिमें पाई जाती है। दिया है । इस ग्रन्थप्रतिमें गाथा-संख्या कुल ४१ है,
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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