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________________ ३०६ अनेकान्त [ वर्ष ८ अतः इस प्रतिके अनुसार गोम्मटसारके उक्त लेखकोंके द्वारा लिखते समय कुछ गाथाएँ छूट गई अधिकारमें केवल एक गाथा ही छूटी है और वह हो, जैसा कि बहुधा देखनेमें आता है। 'णारकछक्कल्वेल्ले' नामकी गाथा (क० ३७०) के प्रकृतिसमुत्कीतेन और कमेप्रकृति अनन्तर इस प्रकार है:णिरियाऊ तिरयाऊ णिरिय-गराऊ तिरय-मणुवायु । इस ग्रंथके कर्मकाण्डका पहिला अधिकार तेरंचिय-देवाऊ माणुस-देवाउ एगेगं ॥१५॥ : 'पयडिसमुक्कित्तण' (प्रकृतिसमुत्कीर्तन) नामका है, जिसमें मुद्रित प्रतिके अनुमार ८६ गाथाएँ पाई जाती शेष गाथाओंका क्रम पाराकी प्रतिके अनुरूप ही। हैं। इस अधिकारको जब पढ़ते हैं तो अनेक स्थानों है, और इससे गोम्मटसारमें किये गये क्रमभेदकी बातको और भी पुष्टि मिलती है। पर ऐसा महसूस होता है कि वहाँ मूलग्रंथका कुछ यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता अंश त्रुटित है-छूट गया अथवा लिखनेसे रह हूँ कि सत्वस्थान अथवा सत्व(सत्ता)त्रिभङ्गीकी गया है, इसीसे पूर्वाऽपर कथनोंकी सङ्गति जैसी उक्त प्रतियोंमें जो गाथाओंकी न्यूनाधिकता पाई चाहिये वैसी ठीक नहीं बैठती और उससे यह जाना जाता है कि यह अधिकार अपने वर्तमान रूपमें पूर्ण जाती है उसके तीन कारण हो सकते हैं-(१) एक तो यह कि, मूलमें प्राचार्य कनकनन्दीने ग्रन्थको अथवा सुव्यवस्थित नहीं है। अनेक शास्त्र-भंडारोंमें कर्मप्रकृति (कम्मपयडी), प्रकृतिममत्कीर्तन, कर्म४० या ४१ गाथा-जितना ही निर्मित किया हो, जिसकी कापियाँ अन्यत्र पहुँच गई हों और बादको काण्ड अथवा कर्मकाण्डका प्रथम अंश-जैसे नामोंके साथ एक दूसरा अधिकार (प्रकरण) भी पाया जाता उन्होंने उममें कुछ गाथाएं और बढ़ाकर उसे है, जिसकी सैकड़ों प्रतियाँ उपलब्ध हैं और जो उस 'विस्तरसत्वत्रिभङ्गी' का रूप उसी प्रकार दिया। __ अधिकार के अधिक प्रचारका द्योतन करती हैं। साथ हो जिस प्रकार द्रव्यसंग्रहके कर्ता नेमिचन्द्रने, टीकाकार ब्रह्मदेवकं कथनानुसार, अपनी पूर्व-चत ही, उसपर टीका-टिप्पण भी उपलब्ध है' और उन २६ गाथाओंमें ३२ गाथाश्रांकी वृद्धि करके उस १ (क) संस्कृत टीका भट्टारक ज्ञानभषणने, जो कि मूलसघी वर्तमान द्रव्यसंग्रहका रूप दिया है। और यह भ० लक्ष्मीचन्द्रके पट्टशिष्य वीरचन्द्रके वंशमें हुए कोई अनोखी अथवा असंभव बात नहीं है, आज हैं, मुमतिकीर्तिके सहयोगसे बनाई है आर टीकामें भी ग्रन्थकार अपने ग्रंथोंके संशोधित और परिवर्धित मूल ग्रन्थका नाम 'कर्मकाण्ड' दिया है :संस्करण निकालते हुए देखे जाते हैं । (२) दूसरा तदन्वये दयाम्भोधिर्ज्ञानभूपो गुणाकरः । यह कि बादको अन्य विद्वानोंने अपनी-अपनी प्रतियोंम टीकां हि कर्मकाण्डस्य चक्र सुमतिकीर्तियुक । प्रशस्ति कुछ गाथाओंको किमी तरह बढ़ाया अथवा प्रक्षिप्त (ख) दूसरी भाषा टीका पं० हेमराजकी बनाई हुई है, किया हो । परन्तु इस वाक्यसूचीके दूसरे किसी भी जिसकी एक प्रति सं० १८२६ की लिखी हुई मूल ग्रंथमें उक्त बारह गाथाओं से कोई गाथा तिगोड़ा जि. सागरके जैन मन्दिरमें है। उपलब्ध नहीं हानी, यह बात खास तौरसे नोट करने (अनेकान्त वर्ष ३, किरण १२ पृष्ठ ७६४) (ग) सटिप्पण-प्रति शाहगढ़ जि. सागरके सिंघीजीके योग्य है । और (३) तीसरा कारण यह कि प्रति मन्दिर में संवत् १५२७ की लिखी हुई है, जिसकी १ देखो, ब्रह्मदेव कृत टीकाकी पीठिका । अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार है :२ सूची के समय पृथकरूपम इस सत्वत्रिभंगी प्रथकी कोई इति श्रीनेमिचन्द्र - सिद्धान्त - चक्रवर्ति - विरचित कर्म प्रति अपने सामने नहीं थी और इसीसे इसके वाक्योंको काण्डस्य प्रथमोशः समाप्तः । शुभं भवतु लेग्बक-पाठकयोः सूची में शामिल नहीं किया जा सका । उन्हें अब यथा अथ संवत् १५२७ वर्षे माघवदि १४ रविवासरे।" स्थान बढ़ाया जा सकता है। (अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२ पृ० ७६२-६४)
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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