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________________ किरण ८-९] आचार्य माणिक्यनन्दिके समयपर अभिनव प्रकाश ३५१ कथनका प्रमाणपरीक्षामें जो विशद भाष्य किया है उन्होंने अपनी गुर्वावली भी दी है और उसमें उसका परीक्षामुखमें प्रायः अधिकांश शब्दशः और अपना विद्यागुरु माणिक्यनन्दिको बतलाया है तथा अर्थशः अनुसरण है। उन्हें महापण्डित और अपनेको उनका प्रथम विद्याइससे यह स्पष्ट है कि माणिक्यनन्दि विद्यानन्द- शिष्य प्रकट किया है । प्रशस्तिमें उन्होंने यह भी के उत्तरकालीन हैं और उन्होंने विद्यानन्दके ग्रन्थोंका बतलाया है कि धारा नगरी उस समय विद्वानों के खूब उपयोग किया है। लिय प्रिय हो रही थी अर्थात विद्याभ्यासकेलिये २--श्रा० वादिराजसूरि (ई० १८०५) ने न्यायके विद्वान दूर दूरसे आकर वहां रहते थे और इसलिये विद्वानोंकी केन्द्र बनी हई थी। प्रशस्तिगत न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिर्णय ये दो ग्रन्थ बनाये हैं और यह भी सनिश्चित है कि न्याय- गुवावली इस प्रकार है :विनिश्चयविवरणके समाप्त होनेके तुरन्त बाद ही प्रशस्ति-"जिणंदस्स वीरस्स तित्थ महंते । उन्होंने प्रमाणनिर्णय बनाया है' । परन्तु जहाँ महाकुदकुंदंनए एत संत । श्रा० विद्यानन्दके ग्रन्थवाक्योंके उद्धरण इनमें पाये सुगरकाहिहागो तहा पोमणंदी। हैं वहाँ माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखक किसी भी खमाजुत्त सिद्ध त उ विसहणंदी। सूत्रका उद्धरण नहीं है । इससे यह कहा जा सकता जिणिदागमाहासणो एयचित्तो । है कि माणिक्यनन्दि आ० वादिराजके कमसे कम तवारणहीए लद्धीयजुत्तो । बहुत पूर्ववर्ती नहीं हैं-सम्भवतः वे उनके आसपास परिंदाग्देिहि सोणंदवंती । समसमयवर्ती ही हैं और इसलिये उनके ग्रन्थों में हुऊ तस्म मीसो गणी रामणंदी। परीक्षामुम्बका कोई प्रभाव नहीं है। महापंडऊ तस्स माणिकणंदी । ३-मुनि नयनन्दिने अपभ्रशमें एक 'सुदंसण भुजंगप्पहाऊ इमो णाम छंटी । चरिउ' लिखा है, जिसे उन्होंने धारामें रहते हुए पत्ताभोजदेवके राज्यमें वि० सं० ११००, ई० सन २०४३ पदमसीसुतहो जायउजगविक्खायउणिणयणंदि अणिंदउ। में बनाकर समाप्त किया है। इसकी प्रशस्तिमें चरिउ सुदंसणणाहहो तेण अवाहहो विरइउ बुहअहिणंदउ ।। आरामगामपुरवरणिवेसे । सुपमिद्ध अबंतीणामदेसे ।। १ 'तन्निर्णयानुपयोगिनः स्मरणादेः पश्चादपि किमर्थं निरूप- सम्बइपरि व्व विबयणाइट्ट । तहिं अस्थि धारणयरी गरिठ। णमिति चेदनुमानमेवेति ब्रमः । 'निवेदयिष्यते चैतत् रमाउद्धवर अरिवरसेलवज । रिद्धि देवासुर जसिा चोज(ज)॥ पश्चादेव शास्त्रान्तरं (प्रमाण निर्णये)।-न्यायविनि० तिवणणारायणमिरिणकेउ । वि० लि० ५० ३०६ । इस उल्लेखसे यह निणीत है तहिं गारवइ पुगमु भोयदर । कि न्यायविनिश्चयविवरण में प्रमाण निर्णय पीछे बनाया मणिगणयहइसियरविगभत्थि । है क्योंकि वहां स्मरणादिको अनुमानप्रमाण सिद्ध किया ताह जिगहरु पडपि विहारु अस्थि ।। गया है। देखो, प्रमाण निर्णय पृ० २३ । गिवविक्कमकालहो ववगएसु । एयारह संवच्छरसएसु ॥" २ प्रमाणादिष्टसंसिद्धिरन्यथाऽतिप्रसंगतः इति वचनात् ।' --न्या०वि०लि. पत्र ३१। 'एत्थ सुदमणचरिए पंचणमोक्कारफलपयासयरे ३ इस प्रशस्तिकी अोर मेरा ध्यान मित्रवर पं० परमानन्दजी माणिक्कणंदितइविजसीसु णयणं दिणा रइए। संधि १२ । शास्त्रीने दिलाया है और वह मुझे अपने पाससे दी है। यह ध्यान रहे कि यह प्रशस्ति ज्योंकी त्यों दी गई हैमैं उसे साभार यहाँ दे रहा हूं उसका अपनी अोरसे कोई संशोधन नहीं किया गया। ले०
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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