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________________ ३५० अनेकान्त [ वर्ष ८ श्राचार्य माणिक्यनन्दिका समय 'प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः ।'-पृ० १ । मुझे यहाँ आचार्य माणिक्यनन्दिके समय- (ख) विद्यानन्द प्रमाणपरीक्षामें ही प्रामाण्यकी सम्बंधमें कुछ विशेष विचार करना इष्ट है। श्रा० ज्ञप्तिको लेकर निम्न प्रतिपादन करते हैं :माणिक्यनन्दि लघु अनन्तवीयके उल्लेखानुसार 'प्रमाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात्परतोऽन्यथा।'पृ०६३। अकलङ्कदेव (७वीं शती के वाङ्मयके मन्थनकतो है। माणिक्यनन्दि भी परीक्षामुखमें यही कथन अतः ये उनके उत्तरवर्ती और परीक्षामुख टीका करते हैं :(प्रमेयकमलमार्तण्ड ) कार आचार्य प्रभाचन्द्र (११वीं शती) के पूर्ववर्ती विद्वान सनिश्चित हैं। 'तत्प्रामागयं स्वतः परतश्च ।'-१-१३ । अब प्रश्न यह है कि इन तीनसौ वर्षकी लम्बी (ग) विद्यानन्द 'योग्यता' की परिभाषा निम्न अवधिका क्या कुछ सोच होसकता है ? इस प्रश्न- प्रकार करते हैं :पर विचार करते हुए माननीय पं० महेन्द्रकुमारजी 'योग्यताविशेषः पुनः प्रत्यक्षस्येव स्वविषयज्ञानान्यायाचार्यने लिखा है' कि 'इस लम्बी अवधिको वरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेष एव ।' -पृ० ६७ । सङ्कचित करनेका कोई निश्चित प्रमाण अभी दृष्टिमें _ 'स चात्मविशुद्धिविशेषो ज्ञानावरणवीर्यान्तराय नहीं आया। अधिक सम्भव यही है कि ये विद्यानन्दके समकालीन हों, और इसलिये इनका समय ई. ९वीं क्षयोपशमभेदः स्वार्थप्रमितौ शक्तिर्योग्यतेति च शताब्दी होना चाहिये । लगभग यही विचार अन्य स्याद्वादिभिरभिधीयते ।' -प्रमाणप० पृ० ५२ । विद्वानोंका भी है। 'योग्यता पुनर्वेदनस्य स्वावरणविच्छेदविशेष एव।' मेरी विचारणा तत्त्वार्थश्लो. पृ. २४६ । १-अकलङ्क, विद्यानन्द और माणिक्यनन्दिके माणिक्यनन्दि भी योग्यताकी उक्त परिभाषाको प्रन्थोंका सूक्ष्म अध्ययन करनेसे प्रतीत होता है कि अपनाते हुए लिखते हैं :माणिक्यनन्दिने केवल अकलङ्कदेवके न्यायग्रन्थोंका स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतही दोहन कर अपना परीक्षामुख नहीं बनाया, किन्तु मर्थ व्यवस्थापयति । –परीक्षामु० २-३ । विद्यानन्दके प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, तत्वार्थश्लोकवार्तिक आदि तर्क-ग्रन्थोंका भी दोहन करके (घ) ऊहाज्ञानकं मम्बन्ध में विद्यानन्दि कहते हैं:उसकी रचना की है । नीचे मैं दोनों आचार्योंके _ 'तथोहम्यापि समुद्भूतौ भूयः प्रत्यक्षानुपलम्भग्रन्थोंके कुछ तुलनात्मक वाक्य उपस्थित करता हूँ.... सामग्री बहिरङ्गनिमित्तभृताऽनुमन्यते, तदन्वयव्यति (क) श्रा० विद्यानन्दि प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणसे रेकानुविधायित्वादहस्य ।' -प्रमागणप० पृ० ६७ । इष्टसंसिद्धि और प्रमाणाभासमे इष्टमंमिद्धिका माणिक्यनन्दि भी यही कथन करते हैं :प्रभाव बतलाते हुए लिखते हैं : 'उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः । 'प्रमाणादिष्टसंसिद्धिरन्यथाऽतिप्रसङ्गतः।'-पृ० ६३ । श्रा० माणिक्यनन्दि भी अपने परीक्षामुख में इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च । यही कहते हैं : यथाऽमावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ।' १ देखो, प्रमेयकमलमार्तण्ड (द्वितीय संस्करण) गत -परीक्षामु० ३-११, १२, १३ । उनकी प्रस्तावना पृ. ५। ___(ङ) विद्यानन्दने अकलङ्क आदिके द्वारा प्रमाण२ न्याय कुम. प्र. भा. प्र. (पृ. १७३) आदि मंग्रहादिमें प्रतिपादित हेतभेदोंके संक्षिप्त और गम्भीर
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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