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________________ प्राचार्य माणिक्यनन्दिके समयपर अभिनक प्रकाश (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया) प्राचार्य माणिक्यनन्दि नन्दिसङ्घके प्रमुख बतलाया है । वस्तुतः इसमें अकलङ्कदेवकेद्वारा आचार्योंमें हैं। विन्ध्यगिरि पर्वतके शिलालेखोंमेंसे प्रस्थापित जैनन्यायको, जो उनके विभिन्न न्यायग्रंथोंसिद्धरवस्तीमें उत्तरकी ओर एक स्तम्भपर जो विस्तृत में विप्रकीर्ण था, बहुत ही सुन्दर ढङ्गसे प्रथित किया अभिलेख' उत्कीर्ण है और जो शक सं० १३२० गया है । उत्तरवर्ती आचार्य वादिदेवसुरिके प्रमाण(ई० सन् १३९८) का खुदा हुआ है उसमें नन्दिसङ्घके नयतत्त्वालोकालङ्कार और प्राचार्य हेमचन्द्रकी जिन प्रमुख आठ आचार्योंका उल्लेख है उनमें प्रमाणमीमांसापर इसका पूरा प्रभाव है । वादिदेव आचार्य माणिक्यनन्दिका भी नाम है । ये अकलङ्क- सृरिने तो उसका शब्दशः और अर्थशः पर्याप्त देवकी कृतियोंके मर्मस्पृष्टा और अध्येता थे । इनकी अनुसरण किया है। इस प्रन्थपर आचार्य प्रभाचन्द्रने उपलब्ध कृति एकमात्र परीक्षामुख' है । यह परीक्षा- बारह हजार प्रमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामकी मुख' अकलङ्कदेवके न्यायग्रन्थोंका दोहन है और जैन- विशालकाय टीका लिखी है। इनके कुछ ही बाद न्यायका अपूर्व तथा प्रथम गद्यसूत्र ग्रन्थ है। यद्यपि लघु अनन्तवीर्यने प्रसन्नरचनाशैलीवाली 'प्रमेय अकलङ्कदेव जैनन्यायकी प्रस्थापना कर चुके थे और रत्नमाला' टीका लिखी है । इस प्रमेयरत्नमालापर कारिकात्मक अनेक महत्वपूर्ण न्याय-विषयक दुरूह भी अजितसेनाचार्यकी 'न्यायमणिदीपिका तथा (रण भी लिख चुके थे। परन्तु गौतमक न्यायसूत्र, पण्डिताचाय चारुकीत्ति नामक एक अथवादा विद्वानों दिङ्नागके न्यायमुख, न्यायप्रवेश आदिकी तरह जैन- की 'अर्थप्रकाशिका' और 'प्रमेयरत्नमालाङ्कार'५ ये न्यायको गद्यसूत्रबद्ध करनेवाला 'जैनन्यायसूत्र' ग्रन्थ टीकाएँ उपलब्ध होती हैं दो-तीन और जो अभी जैनपरम्परामें अबतक नहीं बन पाया था। इस कमी- अमुद्रित हैं । परीक्षामुखसूत्रके प्रथम सूत्रपर शान्तिकी पूर्ति सर्वप्रथम आचार्य माणिक्यनन्दिने अपना वीकी भी एक 'प्रमेयकण्ठिका'६ नामक अनिलघु 'परीक्षामुखसूत्र' लिखकर की जान पड़ती है। उनकी टीका पाई जाती है यह भी अभी प्रकाशित यह अमर रचना भारतीय न्यायसूत्र ग्रन्थोंमें अपना नहीं हुई है। विशिष्ट स्थान रखती है। यह संस्कृत भाषामें निवद्ध और छह परिच्छेदोंमें विभक्त है। आदि और अन्त में १ "अकलङ्कवचोम्भाधेरुद्धं येन धीमता। एक-एक पद्य है, शेष समस्त ग्रन्थ गद्यसूत्रोंम है। सत्र न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥"-प्र.र.पृ.२। बड़े ही सुन्दर, विशद और नपे-तुले हैं । प्रमेयरत्न- अकलङ्कदेवके वचनांसे 'परीक्षामुख' कैसे उद्धृत मालाकार लघु अनन्तवीय (वि० सं० ११वी, १२वीं हुआ, इसकेलिये देखें, 'परीक्षामुखसूत्र और उसका शती)न इस अकलङ्कदेवके वचनरूप समुद्रको मथकर उद्गम' शीर्षक मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ५, कि. ३-४ निकाला गया 'न्यायविद्यामृत' न्यायविद्यारूप अमृत पृ. ११६ से १२८ । १ शिलालेख नं० १०५ (२२४), शि० सं० प्र० २००। २इन ग्रन्थाकी तुलना करें। २ 'विद्या-दामेन्द्र-पद्मामर-वसु-गुण-माणिक्यनन्द्यावयाश्च ।' ३, ४, ५, ६ प्रशस्तिसंग्रह पृ. १, ६६, ६८, ७२ ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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