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________________ अनेकान्त [वर्ष एक अन्य व्यक्त मारत य शाक ( उत्तरीय ) में हाथ जोड़े ३०-४० वर्षके भीतर ही निर्मित हुई होनी चाहिये । श्रतः बड़ा है। नं.चे अामन पर एक मात कितों का अभिनेवि स्पष्ट है कि मथुगमें श्राकर बमने के साथ ही उन्होंने वहाके शुङ्ग-कुशन कालकी ब्राह्मी लिपि और प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित सर्वाधिक प्रचलित धर्मको श्रङ्गीकार कर लिया था। भाषामें खुदा हुआ है। अन्तिम पंक्ति बस्ति है। (३) अर्हन्त प्रतिमानों के पश्चात् जो अन्य देवी-देवताओं बुल्दा साहियक अनुवाद के अनुसार मूर्तिके लेखका की मूर्तिया बननी प्रारंभ हुई उनमें सरस्वती देवीकी मूर्ति भाव निम्न प्रकार है प्रथम अथवा प्राथमिक देवमूर्तिगोंमें रही। मिद्धि मं० ५४ (४४ स्पष्ट है) हेमन्नके ४ थे, १० वें (४) इतनी शीघ्र और इस प्रकार सरस्वती देवीकी दिन (११ या ३२ भी हो मकता है) कोय (कोल्लम) गण, प्रतिस्थापना प्रारम्भसे ही जैनधर्मकी ज्ञान-प्रधान-प्रकृतिको स्थानीय कुल, बदर शाग्वा श्रीगृहमंभोगतो वाचकाचार्य चरितार्थ करती है। हस्तदस्तिके शिष्य गण अार्य नागस्तिक श्रद्धानागे वाचक (५) प्रतिमाके केवल दो हाथ होना-एकमें पुस्तक, श्रार्यदे के उपदेशसे मिहक पुत्र लादकार नावाने मयं सत्वा दूसरा अभयज्ञानमुद्रामें तथ वीणा, माला वादन श्रादि अन्य के हित मुम्बके लिये एक सरस्वती प्रात स्थापित की।" सर्व चिन्हों का अभाव मूल सरस्वतीकी श्राडम्बर-विहीन लेखम दिया हश्रा सं० कुशन संवत् अनुमान किया जाना सादगी तथा उसे श्रुतका सच्चा उपयुक्त प्रतीक व्यक्त करता है। अत: इस प्रतिमाको मिर्माण तिथि सन् १३२ ई० (वा १२२ हे और उपामक पान द्वारा देवीकी अभयज्ञानमुद्रा और ई.) हुई। किन्तु यदि यह संवत् वह हो जिसमें मथुराके जानकी वास्तविक दात्री पुस्तक में अाकर्षित एवं केन्द्रित उसी स्थान प्राप्त कितने ही अन्य अमिलेग्व है और साथ होता है। में सौदास श्रादि शक क्षत्रपाका नामाल्लेग्व भी है तो यह (६) अभिलेख, जहां एक ओर तत्कालीन जैनसंघके मृति प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्वक उत्तरार्धमें निर्मित हुई गण, गच्छ, कुल, शाखा श्रादिरूप संगठन पर अच्छा दानी चाहिये। श्रर्थात् हम मूनिकी निर्माण-तिथि या तो प्रकाश डालना है, वहाँ यह भी सूचित करता है कि उस ई० पूर्व २५ के लगभग है अथवा मन ईसी १२२ (या १३२)। समय बड़े २ वाचकानार्य इस देवीकी प्रतिमाओको प्रतिष्ठा ऐतिहामिक हापसे यह मूनि बड़े महत्वका हे और करा रहे थे। कई बातों पर अनोखा प्रकाश डालती है-- (७) उस समय भी जैन-जनता पुस्तकोंसे अपरिचित (१) प्रथम तो यह मूर्ति जन सरस्वतीकी ही सर्व नहीं थी, जेनों के यहाँ प्रथमण्यन उसके पर्यात पूर्व प्रारंभ प्राचीन प्रतिमा नहीं है वरन सरस्वती-मात्रकी सर्व प्राचीन हो चुका था, तभी तो कलामं भी उसकी ऐमी सष्ट अभिमाना है। जैनधर्मको भौति हिन्द और बौद्ध धर्माम भी व्यजना हो सकी । अतः यह धारणा भ्रमपूर्ण दी प्रतीन सरस्वती देवीकी मान्यता है, किन्तु हिन्द मरस्वतीकी मतियां होती है कि प्राचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि-द्वारा पटखंडागम गुमकालके बादमे ही उपलब्ध दोती है । ५ वीं ६टी श्रादि सिद्धान्त ग्रन्थोंक रूपमें कथित श्रुतावतारसे पूर्व जैनों शताब्दीसे पूर्व की हिन्द सरस्वती की कोई मन नहीं मिलता। में धार्मिक ग्रन्थरचना होती ही नहीं था। श्रुतावतारकी बौद्ध मूर्तियों उमसे भा पीछेकी मिलती है। कथानोंका तालार्य तो परम्परागत द्वादशाङ्क सम्बन्धी मूल (२) शकलोग भी, जैनदेवी-देवताओके उपासक- श्रुतागमके लिपिबद्ध करने की घटनासे ही प्रतीत होता है। जनधर्मावलम्बी थे। कलाम उनका अभिव्यक्ति इस बातको (८) वस्तुतः जिस कालमें प्रस्तुत मूर्तिका निर्माण सूचित करती है कि उस काल में कमसे कम मथुरा निवासी हुअा उस समय जैनजगतमं ज्ञानजागृति (Jaina Renशक तो प्राय: जैन थे। यदि यह मूर्ति प्रथम शताब्दी ई. aissance) का प्रथमत: एक बड़ा प्रबल अान्दोलन पूर्व की है, जैसा कि संभव है, तो शकोंके मथुग-प्रवेश के चल रहा था, जिसका पूर्वाभास हमें कलिङ्गसम्राट खारवेल १ Dr. V. S. Agarwal Guide to Arch. के हाथी गुफा वाले अभिलेखमें मिलता है । और जिसके Sec. of Lucknow Museum. फलस्वरूप ई. सन् ८० के लगभग दिगम्बर श्वेताम्बर
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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