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________________ किरण १] क्या मथुरा जंधू स्वामीका निर्वाणस्थान है ? ६५ मतभेद पृष्ट हुआ। इस अान्दोलनका कारण यह था कि के पश्चात् ही एक अोर प्रात: स्मरणीत धरसेन, पुष्पदन्त, अब शान-ध्यान-तपमें लीन निर्गन्य जैन साधुओं को यह भूतबलि, गुणधर, आर्यमंबु, नागहस्ति, यतिवृषभ श्रादि प्रतीति होने लगी थी कि धर्म और जिनवाणीको रक्षा प्राचार्योने मूल नागम ग्रन्थों की रचना द्वाग, दूसरी ओर केवल म्मरणशक्ति के बल पर नहीं हो सकती। शक्ति और शिवार्य, कुन्दकुन्द, उमास्वाति, विमलसून, ममन्तभद्रादि संहननकी उत्तरोत्तर होती हीनता, चारित्र्य-शेथल्य, श्रद्धानकी उद्भट अाचाोंने अपनी विद्वात्तपूर्ण श्राध्यागिक, दार्शनिक, विकृति, सम्प्रदायभेद संघभेद अादिका होना, इन मब नैतिक, पौराणिक रचनायोमे जैन वाग्देवी का भरार कुछ कारणोंसे यह श्रावश्यक होगया कि भगवान महावीर के ही ममममें श्राश्चर्यजनक रूपमें समृद्ध कर दिया। हम अान्दो भात धारणाद्वारसे परम्परागत चले श्राय श्रतज्ञानका जो लनको पापकता तथा उसके उपक नेताओं की सफलता कुछ अवशिष्टांश विद्यमान है, अर्थात कतिपय विद्वान उम समब रचे गये जेनसापिका जो अवशष श्राज भी प्राचार्योकी धारणामें सुरक्षित है उसे लिपिबद्ध कर डाला उपलब्ध है उमामे भनी प्रकार विदित हो जाती है। जाय, तथा उसके अाधारपर और भगवान के अन्य उप मथुगकी यह दो हजार वर्ष पगनी सरस्वना-प्रतिमा देशों और धार्मिक अनुश्रतियोंके श्राधार पर स्वकीय मौलिक उस महान शान जागतिका सर्वप्रकार उपयुक्त एवं मचा रचनाश्रो तथा टीका-भाष्य प्रादि प्रगौस जैनभारतीका प्रतीक है। श्रतकी अधिष्ठात्री सरस्वती पुस्तक हाथमे लिये भंडार भर दिया जाय, ग्रन्थ-प्रणयनका कार्य जारीक माग धर्मभकोस यह प्रेरणा करती प्रतीत होती है कि उसकी प्रारम्भ कर दिया जाय। निम प्रकार अन्य मर्च नबीन मची उपासना ग्रन्थ-प्रायन तथा मादित्यक प्रचार एवं अान्दोलनका विरोध होता एम अान्दोलन के भी अनेक प्रमारमै दोहै। वास्तव में मनुष्य अपनी भावनाना और प्रबल विरोधी होंगे। मैकड़ों वर्ष प्रयत्न करने के पश्चात् अपने प्रादशों को मूर्तरूप देने का सदैव प्रयत्न करता है। श्रान्दोलन मफल हुमागा। शक, यवन-श्रादि नवागत और इसमें सन्देह नदी कि ग्रन्थ-नगपनका अान्दोलन पामान्य जातियोने, जिन्होंने जैनधर्म अपना लिया था. हम करने वाली श्रुतभक्त जेन जनताको कामना । कुशल कस्नाअान्दोलनको प्रर्याप्त प्रोत्साहन दिया होगा, क्यों कि भारतीयों कारने सरस्वतीकी इम पापग-प्रतिमाम बरे सुन्दर और की अपेक्षा उस समय भी थे लोग लेखन कलाकं अधिक प्रभावक रूपमें अभिव्यक्त किया। प्रादी रहे प्रतीत होते हैं । इस अान्दोलनके परिणामस्वरूप भद्रबाहु स्वामी दिनीय ( प्रथम शताब्दी ई० पूर्वका मध्य ) जमऊ, '' क्या मथुरा जंबुस्वामीका निर्वाणस्थान है ? (लेखक--५० परमानन्द जैन, शास्त्री) महुराए हिलित्ते वीरं पासं तहेव चंद मि। किया गया है। परन्तु अंबूयन किम धेशका धन है या जंबुमणिदो बंदे णिचुइ पत्तो वि जंबुवण ग णे ।। पद्म परमे कुछ भी फालत नहीं होता । मालूम होना। मुद्रित दशभक्त यादि संग्रह में प्राकृत निर्याणा भक्त के जंबू स्वामाने जिस बन में ध्यानाग्नि द्वारा प्रवशिष्ट श्रघानि. अनन्नर कुछ पद्य और भी दिये हुए हैं। उनमें से हम कमेको स्मकर कृत्यता प्राम की. भवत: उमी बनको तृतीय पद्यमें मथुरा और अहिक्षेत्र में भगवान महावीर और वन नाम उल्लेग्विन करना विवक्षित है । अब प्रश्न पार्श्वनाथकी वंदना करने के पश्चात् जंबु नाम के गहन बन रह जा- हे क उक्त जंबूचन किम देश, प्रम अथवा अन्तिमकवली जंबूस्वामीके निर्वाण प्राम होनेका उल्लेख नगरके समीपका स्थान है और मधुग के साथ उसका क्या
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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