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________________ किरण ८ ९ ] रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक कतृत्व प्रमाणसिद्ध है ३३३ दोषोंके अभावके पक्षमें पेश करते हैं तो उनका ध्यान देने योग्य है कि जराका सम्बन्ध वीर्यान्तराय समस्त अन्धकार और धुन्धलापन दूर होजायगा।" कर्मके साथ है । उसका जिसके जैसा क्षयोपशम इस सम्बन्धमें मैं क्या कहूँ ? मुझे सिर्फ हरिभद्रका होता है उसको वैसी देर या जल्दी जरा आती हैनिम्न पद्य याद आ जाता है तब तक उसका सामयिकाभाव रहता है। केवलीने आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा। वीयोन्तराय कमका सर्वथा क्षय कर दिया है और इसलिये उनके जगका सर्वथा अभाव कहा जाता है। पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र, तत्र मतिरेति निवेशम् || यही वजह है कि शीलजलधि, जिनकुञ्जर-जैसे अर्थात् आग्रही पुरुषकी युक्ति वहीं जाती है विशेषण भी साथम और लगाये हैं। जहाँ उसकी बुद्धि स्थिर होचुकी है । जबकि निष्पक्ष केवलीम सुधा और तृषा इन दो दोषोंका पुरुषकी बुद्धि उसकी युक्तिके पीछे-पीछे दौड़ती है। अभाव बतलानेके लिये स्वयम्भूस्तोत्र, पूज्यपादीय प्रो. मा. ठीक हरिभद्रकी इस उक्तिका अनुसरण नन्दीश्वरभक्ति, पात्रकेसरीस्तोत्र, तत्वार्थश्लोकबार्तिक कर रहे हैं। जो हो, मैं तो युक्ति और आगमके और योगदर्शनके प्रमाणोल्लेबांसे यह कहा था किप्रकाशमें यही जान सका हूँ कि स्वयम्भूस्तोत्रमें केवलीमें। जन्मादि दोषोंका अभाव स्पष्टतः अभिहित है जैसा (१) 'क्षुधादिदुःखप्रतिकारत: स्थितिन इत्यादि कि उपरोक्त विवेचनसे प्रकट है. यह मैं उन्हें नहीं स्वयम्भूस्तात्रके पद्यसे सिद्ध है कि केवलीमें भख-प्याससमझा पारहा, इसे मैं अपनी योग्यता समझे की वेदना नहीं होती और न उसके दर करने के लिये लेता हूँ । वे भोजन-पानादिको ग्रहण करते हैं । अन्यथा यहाँ मैं दो बातोंका उल्लेख और कर देना चाहता सामान्य जनोंके लिय दिया गया उनका यह उपदेश " कि क्षुधादि वेदनाओंके प्रतिकारसं न शरीरकी स्थिति हूँ । प्रो. मा.का उन्हें मानना न मानना उनके आधीन है और न आत्माकी-दोनोंके लिये वह प्रतिकार है। पहली बात तो यह कि पूर्वोक्त चौथे उल्लेखमें अनुपयोगी है, 'परोपदेशे पाण्डित्य' कहलायेगा। कहा गया है कि 'हे जिन ! तुमने जन्मके निगलको । समल निर्भेदन (नाश) कर दिया है और इसलिय अत: इस पद्यसे फोलत है कि केवलीके मधा और आप विद्वानोंके मोक्षपदवी हैं अर्थान विद्वान तम्हें पाका बाधा नहीं होता। मुक्त कहते हैं।' यहाँ जन्मनिगलको ममूल निर्भदन (२) जब आतमीमामाकार 'शम शाश्वतमवाप करनेका उल्लेख एवं प्रतिपादन किया गया है। शङ्करः' कहकर केवलीम शाश्वत सुख स्वीकार करते अतः प्रो. मा. बतलाय, जन्मका मृल क्या है ? हैं तो क्षुधा और तृषाकी वेदना उनमें कदापि सम्भव श्रायुको तो उसका मूल कहा नहीं जासकता, क्योंकि नहीं है, न भोजनादिजन्य तृप्तिमुख भी सम्भव है; वह केवली अवस्थामें विद्यमान रहती है। मोहको क्योंकि सुख व्याप्यवृत्ति गुण है और इसलिय ही उसका मूल मानना होगा जिसस जन्म-निगल शाश्वन मुखको स्वीकार करने की हालतमें इन्द्रिय होता है और जिसके नाशसे वह नष्ट होजाता है सब नहीं बन सकता है-मजातीय दो गुण एक और चूंकि केवलीन मोहका निःशेषेण भंदन कर माथ एक जगह नहीं रह सकते हैं । अत: जब प्राप्त. दिया है, इसलिये यहाँ उनके जन्मनिगलका नाश मीमामाकार स्वयं केवलीमे शाश्वत सुख मानते हैं तो हो जानेका कथन किया गया है। दूसरी बात यह है उनमें वेदनीय जन्य एन्द्रिय सुग्व-दुख व सुधा-तृषाकी कि पाँचवें उल्लेखमें अरिष्टनेमिको जिनकुञ्जर और वेदना नहीं है, यह स्पष्ट है। अन्यथा उनके ही कथन और अजर कहा गया है। साथमें शीलजलधि और में परम्पर विगंध आवेगा जो समन्तभद्र जैसे विभव ये दो विशेषण और दिय हैं। अतएव यहाँ आचार्य नहीं कर सकते हैं।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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