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________________ अनेकान्त [वर्ष ८ म और क्षयका बड़ा जैन सिद्धान्तम (३) आप्तमीमांसाकारके अलावा अन्य श्राचार्यो- दोनों हैं । अतः यहाँ परीषहोंका संकेत न होकर ने भी केवलीमें क्षुधा और तृषाकी निवृत्ति मानी है, क्षुधा और पिपासा इन दो दोषोंका अभाव केवल - जैसे पूज्यपाद, भद्रबाहु, पात्रकेमरी, अकलङ्क, विद्या- में प्रतिपादित समझना चाहिये । तीसरी बातके नन्द । इससे प्रकट है कि यह मान्यता प्राचीनतम सम्बन्धमें आप अप्रासंगिक भी कह गये हैं। वहाँ और मौलिक है। योगदशनके प्रवर्तक पातञ्जलि भी हमें यही बतलाना इष्ट है कि केवलीकी बात तो दूर विशिष्ट अात्मामें (योगी) क्षुधा और तृषाकी निवृत्ति है एक विशिष्ट संयमका अभ्यास करने वाले योगीमें स्वीकार करते हैं-यथा 'कण्ठकूपे क्षुत्पिपासा- भी क्षुधा और पिपासाकी निवृत्ति होजाती है जैसे निवृत्तिः ।' (योगद. ३-३०)। कायबलऋद्धिधारी योगी मुनिक महीनों, वर्षों तक ___इनमें प्रो. सा.ने पहली और तीसरी बातपर भूग्व-प्यासका प्रभाव हो जाता है । वास्तवमें भूखतो कुछ लिखा है; किन्तु दूसरी बातपर कुछ नहीं प्यासकं अभावमें मोहनीय और वीर्यान्तरायकर्मके लिखा, जो खास थी। क्यों नहीं लिखा, इसे भी क्षयोपशम और क्षयका बड़ा असर पड़ता है और पाठक समझ सकते हैं। वस्तुतः उसका उनके पास जिससे वेदनीय हतप्रभ हो जाता है । जैन सिद्धान्तमें कोई समाधान हो ही नहीं सकता न उसमें कुतोंका ये दोनों दोष मोहनीय या घातिकर्म सहकृत वेदनीयप्रवेश ही सम्भव है । क्योंकि आप्तमीमांसाकारने से उत्पन्न होते माने गये हैं जैसा कि पहले कहा जा केवलीमें स्पष्ट शब्दों द्वारा शाश्वत-सदा कालीन चुका है। अतएव केवलीमें निःसहाय वेदनीय उन सुख स्वीकार किया है तब ऐन्द्रिय सुख-दुग्य, भूख- दोषोंको उत्पन्न करने में असमर्थ है, यह हम बारप्यासकी बाधा उन्हें केवलीमें स्वीकार्य कैसे हो सकती बार कह चुके है। थी ? पहली बातक सम्बन्धमें आपने लिखा है कि यहाँ हम यह भी कह देना चाहते हैं कि मूलाचार "वहाँ ('क्षुधादिदःखप्रतिकारत:' पद्यमें) यथार्थतः और भगवती आराधनाम जो केवलीमें पंडित पंडित क्षुधादि वाइस परीषहोंका संकेत है जिनको सहन और पंडित मरण कहा गया है वह गृहीत शरीरको करना प्रत्येक साधुका धर्म है । और यही भगवानका बिना किसी माह या पीडाके छोड़नकी अपक्षासे है ।" क्यों साहब, यदि इस पद्यम वाइस और इसीलिये उसके साथ पंडित पंडित अथवा परीषहोंके सहनेका संकेत है तो 'इन्द्रियार्थप्रभवाल्प- पंडित विशेषण लगा हुआ है। सामान्य मनुष्य जैमा सौख्यतः' इत्यादि फिर किस लिये कहा गया ? और उसका मोह या दुःख जनक मरण नहीं हैं और न शरीर तथा शरीरी (आत्मा) के लिये उनकी अनुप- पुनर्जन्म वाला मरण है । इस मरणका ही अभाव योगिता क्यों बतलाई गई ? साधु तो भोजन भी केवलीम प्रतिपादित किया गया है । यही मरण माहकरते हैं और पानी भी पीते हैं ? बात यह है कि निमित्तक है और मनुष्योंका रुलाने वाला है । भूख-प्यासकी बाधा होनपर लोग जो उसके प्रतिकार वास्तवमें केवलीके शरीर-त्यागको मरण ही नहीं के लिये भोजनादि ग्रहण करते हैं और इन्द्रिय कहना चाहिये उस तो परिनिवृति कहना चाहिये, विषयोंसे सुख मानते हैं उनकी यहाँ शरीर और क्योंकि अयोगावस्थामें केवलीके नाम और श्रायु शरीरीके लिये अनुपयोगिता बतलाई है जिससे लोग अपनी स्थितिक पूर्ण हो जानेसे स्वयं हट जाते है, उन्हीमें आसक्त न रहें । यदि केवली इन्हें ग्रहण करते उन्हें उमस मोह नहीं रहता, इमीसे शास्त्रकारोंने उनके रहें तो वे उनकी बुराई, निन्दा और हयता कदापि शरीर-त्यागको परिनिवृतिक नामसं उल्लेखित किया है नहीं बतला सकते । हमारे और उनके उपदेशमं यही जो अनेकान्तवादियोंके लिये कोई दोषावह नहीं है। तो अन्तर है कि हमारा तो केवल शुष्क उपदेश है- अब मैं यह प्रकट कर देना चाहता हूँ कि यदि आचरण नहीं और केवलीका ज्ञान और आचरण प्रो. सा. को स्वयम्भूस्तोत्र आदिके उल्लेख मान्य
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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