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________________ ३० अनेकान्त यहाँ तक तो वेदनीय कर्म मोहनीयके अधीन है । किन्तु बँधे हुए कर्मकी सत्ता और उसके उदयमें वंदनीय कर्म मोहनीयसे सर्वधा स्वतंत्र है। मोहनीयका उदद्यामार ही नहीं, उसकी मत्त मात्र के क्षय होजानेपर भी वेदनीयक बंधे हुए कमी सत्ता जीवन बनी ही रहती है और वह बराबर उदयमें श्राती रहती है एवं उसकी तीन व मन्दता उसीके अपने अनुभागदियपर अवलंबित रहती है। अब मोहनीय कर्मका रहता है, तब उसके योगम वेदनांयोदय साथ राग द्वेष परिणतिका मिश्रय दिखाई देगा मोहोदवर्क अभावमें राग-द्वेष परिया निकामी प्रभाव हो जायगा। पर उससे वेदनीयोदयजन्य शुद्ध वेदना कम नहीं होती वो बहुत की बात है द कर्मका उदय जितनी मात्रामें मन्द होगा उतनी ही मात्रा में दिवेदनायें मन्द होती जायेंगी किन्तु वेदनाका सर्वथा प्रभाव तो तभी माना जा सकता है जब उस कर्मक उदयका सवधा प्रभाव हो जाय ।" मेरे इस लेखको थर स्पष्ट निर्देश किये जानेपर भी न्यायाचार्यजीने उसपर कोई ध्यान न देकर अपने मतको पुष्टिम गोम्मटमार वर्मा की गाथा पेश की है जिसमें वंदनीय मदन पूर्व पाकिमोंके बीच नामीकिये जाने यहाका बतलाई गई है कि 'मोहनीयक बलसे वेदनीय भी घातिकर्मके समान जीवका घात करता है उसका पाठ मोहनीयमेवं धानिया इसमें कमोंमें रखा गया है। इस पर भी में अपने विचार अपने 'केवल भगवान के खप्यामादि वेदना' शीर्षक ले में प्रकट कर चुका है और वहीं प्रसंगोपयोगी अंश यहां भ्रंश उदन कर देता है [ वर्ष = ज्ञानादि गुणोंका घात नहीं करता। यह बात एक उदाहरण से और भी स्पष्ट हो जायगी। जब वैद्य कहता है कि यदि वरके साथ कफ और पीकी पीड़ा भी हुई वह अवर त्रिदोषात्मक होनेसे घातक हो सकता है, तो इसका क्या यह अभिप्राय होगा कि यदि कफ और पसल्नीकी पीड़ा नहीं है तो ज्वर अपना वेदनाकारी किन्तु श्रघातक तापरूप फल देना भी छोड़ देता है ? बचाव वेदनीय कर्म अपनी फलदादिनी शनि में अन्य अघातिया कर्मोंके समान सर्वा स्वतंत्र है। यदि उसकी फलदायिनी शक्ति मोहनीयके अधीन होती तो या तो वह मोहनीयकी ही उत्तर प्रकृतियों में गिनाया जाता जैसे रति-अरति आदि नोकषाय । या स्वतंत्र कर्म मानकर भी मोहनीयके साथ उसके उदय और होनेकी व्यवस्था करदी जाती जैसी ज्ञानावरणीय के साथ दर्शनावरणीयकी पाई जाती है परन्तु कर्मान्त के शास्त्रजको पैसा दृष्ट नहीं है, और वे मोहनीयको वेदनीयका सहचारी न मानकर उसका विशेषी ही बतलाते है। उदाहरणार्थ, सासूत्र कीटकामे कमक नामनिर्देश कमको साता बताते हुए राजयातिककार सार्थकता ज्ञानावरण और दर्शनावरणका साहचर्य प्रकट करके कहते है "कर्मकाण्डकी गाथा १६ में जो यह कहा गया है कि विनीय कर्म मोहनी के बल धानिकर्मके समान जीवका धान करता है, वह बिलकुल ठीक है कि वेदमीयजस्य वेदना साथ जब तक मोड राग द्वेषरूपी परिणाम भी रहते हैं तब तक जानादि गुणोंका पूर्ण विकास नहीं हो सकता। पर मोहनीयके अभाव में वेदनीय अपनी शुद्ध श्रघातिया प्रकृतिपर भा जाता है जिससे अपने उदयानुसार दुख-दुखरूप वेदना उत्पन्न करते हुए वह जीवक केवल * तदनन्तरं वेदनावचनं, तदव्यभिचारात ||२०|| तदनन्तरं वेदना कुतः ? सदव्यभिचारान ज्ञान दर्शनाव्यभिचारिणी हि वेदना पटादिष्वप्रवृत्तेः । ततो मोहाऽभिधानं द्विरोधान ||२१|| तत्पश्चान सोही सिधीयते कुतः तद्विगंधा तेषां ज्ञान-दर्शनसुख-दुःखानां विरोधात मूढी हिन जानासि न । पति, न च सुख-दुःखं वेदयते ।" , यहां राजवार्तिककारने बतला दिया है कि ज्ञानावर और दर्शनावरण कर्मके पश्चन जो वेदनांचा उल्लेख किया गया है वह इस कारण कि वेदना ज्ञान और दर्शन की व्यभिचारिणी है जो ज्ञान और दर्शन पाया जायगा वहीं वंदना भी हो सकती है और जहां उन दोनों का अभाव है, जैसे घटादिमें, वहां वेदनाका भी श्रभाव पाया जायगा | वेदनीयके पश्चात जो मोहनीयका निर्देश किया गया है उसकी सार्थकता यह है कि ज्ञान, दर्शन,
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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