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________________ किरण १ ] रत्नकरण्ड और आप्रमीमांमाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं ३१ सुख और दुःखकी वेदनास मोहका विरोध । मुढ जीव कागकी प्राप्त में धादिक अभावकी मान्यता मिद्ध करनेके न जानता है, न देखताभीरन सुख-दु:ग्वका वंदन करता। लिये पंडितजीने प्राप्तमामांसाकी प्रथम कारिका उद्धन की। इसी प्रकार श्लोकवातिककार स्वयं विद्यानन्द जीने और लिखा है किभा स्वीकार किया है कि तदनन्तरं वदनीयवचनं. तमव्यभिचारान। नतो (घ) क्या सुधादिका अभाव मरगी देवों में भी माहाभिधानं, तद्विगंधाना' माना जा मकना है? राजवानिक और श्लोकवानिक इस विशद स्पष्टीकरण "मूल कारिका और उसके व्यायामप यह स्पष्ट जान के प्रकाश में यह कहना व्यर्थ है कि वेदनीयका मोहनीयके पहना है कि यहां नहीं प्रागमोक विभूतियों-कतिपय माथ माहचर्य है और ज्ञान-दर्शनमे विरोध है । यथार्थतः अतिशीक प्रतिपादन किया गया है जो अरहनक ३४ प्रति तो व्यवस्था हमसे सर्वथा विपरीत सिद्ध होता है।" शयोंम प्रतिपादित हैं और जिनका प्राप्त भगवान में अस्तित्व (१ ग) क्या क्षुधादि वेदनामाका अभाव घाति कर्म- म्वीकार किया गया है । इसके भाग भाप्तमीमांमाकी यजन्य अतिशय भी माना जा सकता है ? दूसरी कारिका व उसकी टीका उद्धत करके उस परमे उन्होंने यह निक निकाला है कि "उन भागमान. अति. यद्यपि पंडितजीन इस सब प्रमाणा-कलाप पर निदेश शयों को बनाया जान पता है जो कंवली में कुछ तो पूर्वक कोई विचार नहीं किया, तो भा जान पड़ना है उम जन्ममे श्रीर कछ कवलज्ञान होनम ( धातकर्म चाय ) की ओर उनकी राष्ट रही अवश्य है, इपी लिये भाग नया कुछ दवा मिमित प्रकट हान है। -शरीरम चन कर उक वेदनाओंको 'मोहनीय जन्य' या 'मोहनीय क.मी नान प्राना, कनाडारका न होना, बुढ़ाया नहीं महकृत वेदनीय जन्य कहना छारकर उन्होंने एक तामग होना, गन्माद की वर्षा हाना श्रादि प्रादि । य अतिशय ही मन यह स्थापित किया है कि - पुरणाकश्यप श्रादि मनप्रवतको मायावियाँम न होनपर "अमल में बात यह है कि न धादि प्रवृनियों का प्रभाव भा अक्षाकपाया स्वर्गवामी दवाम विद्यमान है। लकिन धानिकर्मजन्य अतिशय है जो कंवलज्ञानादि के अतिशयों में दव प्राप्त नहीं है। अत: इन अतिशयाम भी प्राप्तनाका है। अन: वीतरागता सर्वज्ञता और हितोपदेशिता पनि निर्णय नहीं किया जा सकता है।" पादन करनेमें उन लोकोत्तर अतिशयोंका-तधादिक श्रभावका-प्रतिपादन भी अनुषगत: ही जाना है। इस इन कथनीय पंडित जीका यह अभिवाय पन. हमा लिये प्राप्तमीमांसाकार प्राप्तमीमांमागे ही धादि प्रवृनियोंक कि नधादि वदनाभावम्प अतिशय सकपाथी देवोंक भी केवनी में प्रभावकी कगटन: बतलाने के लिये बाध्य नहीं है।" माने गये हैं। और कि उनके धानिमा कर्माका प्रभाव माना नही जा सकता प्रतएव अन्नय-व्यनिरकम्प अनु. __ अन, अतिशय घातिकम जन्य नो हो नहीं सकता। पंग न होनम ॥ श्रार धादि वेदनाश्री और दमी और संभवत: पंडितजीका अभिप्राय घातिकमनय जन्यम है। मौनीय या वेदनीयमे कोई कार्य का सम्बन्ध नहीं किन्तु यदि यही बात है तो फिर तधादि वेदनाय मोहनीय या वेदनीय, प्रधा जनक महयोग जन्य न रह कर ममम्त सिद्ध हुश्रा। यहां स्वयं न्यायाचार्य जीन है। अपनी यकियों से यह निपं निकाला कि..... घातिया कक समूहकी उत्पगि कहीं जाना चाहिये, और चूंकि उनका प्रभाव केवलज्ञान होने पर ही होता है, हम उपर्युन. मम्पूगां विवेचनकापर्यमिता यह श्रा मोहनीयके प्रभाव नही, अनाव के विशेष रुपम ज्ञाना कि प्राप्तमामांमाकार और उनके टीकाकागने प्राप्त कारिका वरीय और दर्शनावरीय न्य सिद्ध हुई। २ में प्राप्त नधादिक अभावका वीकार किया है, परन्तु किन्तु यहां भी धादि वेदनाश्रीको कारण कल्पनाका बाना नहीं खाना, पानी नहीं पीना, पसीना नही पाना अन्त नहीं हश्रा क्योंकि भाग श्रप्तमीमांसाकार और टीका. श्रादि ये प्राप्त की कोई ग्वाम विशेषताएं नहीं है, क्योंकि
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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