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________________ किरण १ रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांमाका एक कतत्व अभी तक सिद्ध नहीं नात्रों को मोहनीय कर्म जन्य कहीं भी नहीं माना गया। यहां पदित जीने नधादि प्रवृत्तियों का जनक कारण तो तत्वार्थमृत्रकारने परीघहाकी व्यवस्था करते हुए दर्शनमाह वंदनीय स्वीकार कर लिया, किन्तु यह विशेषता रवली कि से श्रदर्शन, चारित्रमाहम नाम्न्यादि मात तथा वदनीये इस कार्य मोहनीय उसका सहायक होता है और वह भी शपाः' मत्रके द्वारा पिापामादि ग्यारह परीपदाकी उत्पत्ति ऐमा महायक कि उसके बिना वंदनीय उन प्रवृनियाको वदनीयकर्मम बतलाई है। उन सूत्र पर टीका करते हुए पैदा करनमें बंधा असमर्थ है। मन जो प्रमाग ऊपर सर्वार्थ सिन्ति कार लिखते हैं प्रस्तुत किये हैं उनमें कहीं भी क्षपिपामादि वेदनाश्री व उत्ताः एकादश परीपदाः। तेभ्योन्ये शेपा वेद- सब-वके अनुभवों के लिये मानाय कर्मकी यह अनिवार्य नीये मान भवन्तानि वामशेषः। के पुनम्त? नाम- सहायकता स्वीकार नहीं की गई। और की मी नहीं जा पामा-शीनोप्या - दंशमशक-च या शय्या-वध-गग-तगा- सकती क्या कि यदि वदनीय कर्म अपनी फलदायिनी , पश-मलपरीपहाः। (त० म०६, १६) शनिमें स्वतंत्र नहाकर मोहनीय कर्मक अधीन होता तो धवनाकार वारपेन स्वामीने कहा उस एक सनत्र कर्म न मान कर नापायांक समान जोवम्म मह दक्वारहवांगायधगो पोग्ग- मोहनीयक ही एक उपभेद माना जाता । मोहमीयक मबंधा लावधी मिच्छन दिपन यनगण कम्मजयपग्गिादो वशीभून होने पर तो एमका स्वतंत्र मना अधिकार होने जीवनमवेदी वेदगाायमिद नगगग दे । नम्मत्थिनं कुदो मेअभावरूप हो जाती है। अथवा, यदि मोर नायक माय व गम्मद ? मुम्ब-दु:खक जगगाहारगुववनीदी। उमका निरन्तर पाचयं अपचन होता ना ज्ञान और (पद खं०१,६-१, ७) दर्शन पावर गाय काँक ममान उनके उदय और क्षयको अमादकख, तं वेदावेद भजावदिनि असादा व्यवस्था एक साथ की गई । किन्तु धवलकारने ना बंदगोय। . . . "जं कि पि दवावं गाम त आमादा •ा है कि सुख-दुख अनुभवन कराने की शकि बदनीयको छोर और किम कर्मम ही नहीं। इस विषय बंदगायादोहोदि, तम्म जीवनम्वनाभावा ।... का बहुत कुछ ताधिक विवेचन मैं अपने खाम कर गग च महन्दबह उदवसंपादयमग कम्मत्यि नि अणुवलंभादो। जस्मोदएगा जीवो मुहं व दुग्वं व चुका है। पूर्व लेम्बमें मैंने पंरिनजीमे अपने क्या तम्बार्थ दविहमगाभवइ । तम्साद यक्वण्गा द मह-दुकम्व मृत्रकार और उनके टीकाकाका अभिप्राय एक ही?? शीर्षक लेखको देखने की प्रेरणा भी की थी । परन्तु जान विञ्जिओ होइ। (पट खं०१, ६-१, ५८) हन प्रमाणोमि सुस्प है कि सभा तृषा भादि वेदनामी पसतारे रिनाने सम और कोई ध्यान देने की कृपा मदी की नहींनी व अपना उन प्रकार मन प्रकट न करने, एवं समस्त सुग्व-दुग्य रूप अनुभवोंका उत्पादक चंदनीय या मेरी दी हुई नककि निगकरया पूर्वक करने । किन्तु कम है, अन्य कोई काम नहीं। यह कहीं मेरे देखने में नहीं उन्होंने चैमा नहीं किया। अनाव पाने में यह अपने सम श्राया कि धादि वेदनीय मोहनीयकर्मजन्य है। पर्वलम्ब कवनम्न विषयोपयोगी शहन करना - (• ग्व। अधादि वंदनाय मोहनीय महकन वेदनीय जन्य भी नहीं मिद होनी-- यदि हम कमसिद्धान्तानुमार मोहन और वनय शायद अपने कथनकी यह चाईम न्यायालायजी कमांक पर विचार करे ना जाना कि वनी। की दपमें आगई थी. इमाम उन्होंने फिर भागे एल कर, कमंकी स्थिति और अनुभाग बाहनीय कनियक किन्न बिना अपने पूर्व कथनाम कोई सुधार पेश किय, श्राधीन है। जब मोहनीय कमका उदय मन्द मन्नान कहा है लगता है, न य उम्मीक अनुसार वेदनीय का यतिबध नधादि प्रवृनियां बम्न न: मोहनीय महकृत वेदनीय भी उनगता कम होना जाना र जमरामापराय जन्य है. अतएव मोहन यक बिना वली में बदनीय उन गगग ग्यान के अन्त में मोहक नया मया प्रभाव हो जाना प्रवृनियोंका पैदा करने में सवथा असमर्थ है।" नब वेदनीयका म्यनिबन्धी समाप्त हो जाता है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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