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________________ २८ अनेकान्त [ वर्ष ८ मानने में कहीं कोई मतभेद नहीं है। रनकर रहके छठवें इस प्रकार के कथन में क्या रहस्य है ?” किन्तु मेरे उपर्युक्त लोकमें उल्लिखित दोषों में इस प्रकार के पांच दोष है- कथनमें ऐसी कौनमी अस्पष्ट बात है जिसमें उन्हें रहस्यका भय, रूपय, राग, द्वेष और मोह। अतएव इन दोषोंक सन्देह हो गया ? तथापि मैं अपनी बातको और भी विशकंवली में प्रभावके सम्बन्धक उल्लेख प्रस्तुत करना अना. दतामे रख दनका प्रयग्न करता हूँ। जो ग्रन्थ कार अपने वश्यक है।" इस पर पंडितजीने जिम्बा है- मैंने स्वामी एक ग्रंथ में प्राप्तके कुछ सुम्पष्ट लक्षण स्थापित करे और ममन्तभद्र की ही प्रमिद्ध रचना म्वयंभूमीवपरमं तृधादि फिर श्राप्तमीमांसा पर ही एक पूरा स्वतंत्र ग्रंथ लिख उस दोषों और उनके केवली में प्रभावको सिद्ध करन वाले से सभावत: यह अपेक्षा की जाती है कि वह उस ग्रंथमें अनेक उन्लेम्बोंको उपस्थित किया था। प्रसन्नताकी बात है नहीं लक्षणोंकी व्यवस्थित मीमामा करेगा। किन्नु यदि कि उनमें राग, द्वेष, मोहक माय भय और ममय (म्मय) वह पाने उम ग्रंथमें उन लक्ष गांका विचार तो दूर के अभावको भी कंवली में प्रो० मा० ने मान लिया है और रहा, किन्तु नाम भी न लेवे और अन्य ही प्रकारमे प्राप्तका इस तरह उन्होंने नारगड में एक 15 दोपॉमम पाँच मरूप निर्णय करे तो उसके सम्बन्ध में निम्न तीन विकल्प दापोंके अभावको तो स्पष्टतः स्वीकार कर लिया है।" उत्पन्न होंगेआगे चल कर पंडित जीन फिर कहा है कि उनकरगढमें (1) या तो उस मनको वह इतना करचा सममता कह गये उन १E दायाममें श्राप्तमें राग-द्वेषादि १२ दोषा था कि स्वयं उमे अपनी ही 'मीमांसा' की कमोटी पर का प्रभाव स्वीकार करने में श्रापको कोई श्रापत्ति नहीं करने का साहस नहीं कर सकता था। अतएव वह उसे ही" म प्रकार बार बार लिम्व कर पंडित जी यह घोपित वहां जानवझ कर अंधरेमें डाले रहा। करना चाहते हैं कि मानो उन. दापोंका कनजीमें श्रभाव (२) अथवा, उसका अपने पूर्व प्रथम स्थापित वह में पहले नहीं मानता था, किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत किये मत परिवर्तित हो गया था। गये उल्लेखों परम मुझे मानना पड़ा है। मैं पंडितजाम (३) अथवा वह मत मीमांया ग्रन्थकारका है ही नहीं पूछताएं कि उन बारह दापोंका केवलाम श्रभाव मानने में माननम और फलतः दोनों ग्रंथ दोभिन्न भिन्न लेखकाकी कृतियां हैं। मुझे भापति थी कब? मेरे ऊपर उद्धत लेखांशम मुस्पट अब यदि कहीं कोई रहस्य है तो वह मेरे कथनमें है कि मैंने तो उसमन्बन्धमे गिडतजीके उल्लेख में अवि. नहीं, किन्तु इस उपयुक्त परिस्थिति में है और न्यायाचार्य बैंक और अनावश्यकता ही सूचना की थी। जिस कर्म- जीको स्वयं उस रहस्यका विधिवत् उद्घाटन करना चाहिये। सिद्धान्तकी वर्णमालाका भी ज्ञान है वह भी तराग. धादि वंदनाभोंके कारणकी शोध केवलीमें राग-द्वेषादि प्रवृत्तियों की श्रभावविद्धि के लिये किमी स्तोत्रमैप तामम्बन्धी विशेषणों का संग्रह करना कमी (२क) क्षुधादि वेदनायें मोहनीय जन्य नहीं मानी गईश्रावश्यक नहीं समझेगा। पंडितजीने लिखा है कि प्राप्तमीमांसा श्राप्तके राग. देवादि दोष और प्रावरणका प्रभाव बनला देनेपे ही (११) आनमीमांसा और रत्नकर गडके बीच का रहस्य तजन्य क्षुधादि प्रवृत्तियोंका-लोकमाधारण दोषोंका. मैंने अपने पूर्व लेखमें कहा था कि "यथार्थत: यदि अभाव सुतरां सिद्ध हो जाता है।" आगे चल कर उन्होंने प्राप्तमीमांसाकारको प्राप्तमें उन प्रवृत्तियोंका प्रभाव मानना फिर लिखा है-'तुषादि तुच्छ प्रवृत्तियोंके प्रभावकी अभीष्ट था तो उसके प्रतिपादन के लिये सबसे उपयोगी मिद्धि तो श्राप्तमें मोहका अभाव हो जानेसे अस्पष्टता एवं स्थल वही ग्रंथ था जहां उन्होंने श्राप्तके ही म्वरूपकी श्रानुषंगिक रूपमें स्वत: हो जाती है।" इन कथनों परसे मीमांसा की है। उन्हें वहां ही इसकी मार्थकता भी सिद्ध पंडितजीका यह मत प्रकट होता है कि क्षुधादि वेदनायें करना भी। किन्तु यह बात नहीं पाई जाती।" परन्तु सर्वथा मोहनीय कर्मोपन्न है। किन्तु जहाँ तक मैं कर्मः न्यायाचार्यजीको समझमें नहीं पाता कि प्रो. सा. के सिद्धान्तका अध्ययन कर पाया हूँ वहां तक आधादि वेद
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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