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अनेकान्त
[वर्ष ८
अतएव स्पष्ट है कि वेदनीय फल देनेमें मोहनीय या वातिकर्मकी अपेक्षा करता है और इस लिये इन दोनोंमें विरोध नामकी कोई चीज संभवित नहीं है । इस सम्बन्धमें गो० क० गाथा १६, न्यायकुमुद पृ० ८५६, चामुन्डराय कृत चारित्रसार ४० ५७-५८, अनगारधर्मामृत पृ० ४६५, शतक, प्र६० टी० पृ० २८, रत्नकरण्ड टी० पृ० ६, और भावसं० श्लोक २१६ श्रादि शास्त्रीय प्रमाण और प्रस्तुत हैं, जहाँ भी दोनोंकी सापेक्षताका विशदतासे सयुक्रिक वर्णन है।
(क्रमश:)
होती है कि जो विषय नहीं मुख्यतः वर्णनीय होता है वहां उसका वे श्रन्वय और व्यतिरेक दोनों द्वारा इस ढंगसे साधन करते हैं कि पाठक, उसकी सत्ता और अनिवार्यता स्वीकार करलें । यही बात वेदनीयको सिद्ध करनेमें उसके प्रकरण में राजवार्तिककार और श्लोकवार्तिककारने अपनाई है अर्थात् मोहनीयको वेदनीयका विरोधी कह कर उसका स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध किया है। तात्पर्य यह कि जो कार्य वेदनीयका है वह मोहनीय द्वारा नहीं किया जासकता है हां, उसका सहायक हो सकता है। इतने अर्थ में ही वहां अकलंक और विद्यानन्द एवं दूसरे श्राचार्योंने दोनों में वीरसेवामन्दिर, सरसावा विरोध बतलाया
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२३-६-४६
कौनसा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ?
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[ परिशिष्ट ]
'अनेकान्त' की गत, किरण ३ में मेरे द्वारा उक्त शीर्षकके साथ एक लेख लिखा गया | उस लेख से सम्बद्ध कुछ अंश उस समय सामने न होनेसे प्रकाशित होने से रह गया था । उसे अब इस फिर में यहां परिशिष्ट के रूप में दिया जा रहा है ।
दमोह कुण्डलगिरि या कुण्डलपुरकी कोई और अब वह पन्ना स्टेटमें पकड़ा गया है'।
ऐतिहासिकता भी नहीं हैं
जब हम दमोहक पाश्वर्ती कुण्डलगिरि या कुण्डलपुरकी ऐतिहासिकता पर विचार करते हैं तो उसके कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। केवल विक्रमकी अठारहवीं शताब्दीका उत्कीएँ हुआ एक शिलालेख प्राप्त होता है, जिसे महाराज छत्रसालने वहां चैत्याल - का जीद्धार कराते समय खुदवाया था। कहा जाता है कि कुण्डलपुर में भट्टारकी गद्दी थी। इस गद्दीपर छत्रसाल के समकाल में एक प्रभावशाली एवं मंत्रविद्या के ज्ञाता भट्टारक जब प्रतिष्ठित थे तब उनके प्रभाव एवं आशीर्वाद से छत्रसाल ने एक बड़ी भारी यवन सेनापर
काबू करके उसपर विजय पाई थी। इससे प्रभावित होकर छत्रसालने कुण्डलपुर के चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराया था और मन्दिर के लिये अनेक उपकरणोंके साथ दो मनके करीबका एक वृहद् घंटा (पीसलका ) प्रदान किया था, जो बादमें चोरीमें चला गया था
जो हो. यह शिला लेख विक्रम सं० १७५७ माघ सुदी १५ सोमवारको उत्कीर्ण हुआ है और बहके उक्त चैत्यालय में खुदा हुआ है। यह लेख इस समय मेरे पास भी है । यह अशुद्ध अधिक है। कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नाय में यशः कीर्ति, ललितकीर्ति, धर्मकीर्ति (रामदेवपुराण के कर्त्ता), पद्मकीर्ति, सुरेन्द्रकीर्ति और उनके शिष्य ब्रह्म हुए सुरेन्द्रकीर्तिके
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यह मुझे मित्रवर पं० परमानन्दजी शास्त्री से मालूम हुआ है। उक्त पं० जीसे यह शिल| लेख प्राप्त हुआ है, जिसके लिये इस उनके आभारी हैं।
( शेषांश टाइटिल के दूसरे पेज पर )