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________________ किरण ४-५] रत्नकरएड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्धी - घातिकर्म निरपेक्ष फल देनेमें जो बीरसेन स्वामीके वचनोंसे दयसहायाभावात तासामर्थ्य विरहात । तद्भावोपचाराद् ध्यानप्रमाणित करनेका प्रयत्न किया गया है वह सर्वथा भ्रान्त है कल्पनवच्छक्रितः एव केवलिन्येकादशपरीषहाः सन्ति । और उनकी विभिन्न स्थलीय विवक्षामोंको न समझने एवं पुनय क्रितः, केवलाद्वेदनीय । द्वयन सुदायसम्भवादियुपचारउनका समन्वय न कर सकनेका ही परिणाम है। तस्ते तत्र परिज्ञातम्याः । कुतस्ते तत्रोपचर्यन्ते इत्याहइसी प्रकारकी बढ़ी भूल उन्होंने अपनी दूसरी बात लेश्यैकदेशयोगस्य सद्भावादुपचर्यते । (वेदनीय और मोहनीयके पारस्परिक विरोध) के समर्थनमें की यथा लेश्या जिने तद्ववेदनीयस्य तत्त्वतः ॥ है। भाप लिखते हैं परन्तु कर्म सिद्धान्तके शारूज्ञोंको वैसा घातिहत्युपर्यन्ते सत्तामात्रात परीषहाः । पष्ट नहीं है, और वे मोहनीयको बेदनीयका सहचारी न मान छमस्थवीतरागस्य यथेति परिनिश्चितम् ॥ कर उसका विरोधी ही बतलाते हैं । उदाहरणार्थ, तत्त्वार्थसूत्र ननदादेरमिव्यकिस्तत्र तद्वस्वभावतः । ८, ४ की टीकामें कर्मों के नामनिर्देश क्रमकी सार्थकता बत- योगशून्ये जिने यद्वदन्यथातिप्रसंगतः ॥ लाते हुए राजवार्तिककार ज्ञानावरण और दर्शनावरणका नैकं हेतुः सदादीनों व्यक्रौ चेदं प्रतीयते। साहचर्य प्रकट करके कहते हैं।' आगे राजवार्तिककी कुछ पंक्रियों तस्य मोहोदयाद् व्यरसद्वेचोदयेऽपि च ॥ को उद्धृत किया है। साथ ही वे यह कहते हुए कि 'इसी क्षामोदरवसम्पत्तौ मोहापाये न सेक्ष्यते । प्रकार श्लोकवार्तिककार स्वयं विद्यानन्दजीने भी स्वीकार किया सत्याहाराभिलाषेऽपि नासदेयोदयाहते ॥ है।' विद्यानन्दके श्लोकवार्तिककी भी दो पंकियों उन बातके न भोजनोपयोगस्यासवेशाऽप्यनुदीरणा । समर्थनमें प्रस्तुत करते हैं! असातावेदनीयस्य न चाहारेक्षणादिना ।। यहाँ प्रो० साने वेदनीय और मोहनीयमें विरोध प्रमा- शुदित्यशेषसामग्रीजन्याऽभिव्यज्यते कथम् । शित करने के लिये उन दो सुप्रसिद्ध प्राचार्यों के ग्रन्थोंके तवैकल्ये मयोगस्य पिपासादेश्योगतः ॥ वाक्योंको उपस्थित किया है जो मोहनीयको वेदनीयका क्षदादिवेदनोद्भती नाई तोऽनन्तशर्मता। सबलताके साथ सहायक मानते हैं और जो प्रो० साके निराहारस्य चाशनी स्थातुं नानन्तशक्तिः ॥ मन्तव्यका जरा भी समर्थन नहीं करते हैं । यथा : नित्योपयुक्रबोधस्य न च संज्ञाऽस्ति भोजने । ___'यस्य हि दादिवेदनाप्रकर्षोदयस्तस्य तत्सहनापरीषह- पाने चेति हुदादीनां नाभिव्यकिर्जिर्नाधिपे ॥' जयो भवति । न च मोहोदयबलाधानाभावे वेदनाप्रभवोऽस्ति -श्लोकवार्तिक पृ. ४१३ । तदभावारसहनवचनं भक्रिमात्रकृतम् । प्राचार्यप्रवर अकलदेव और विद्यानन्दके इन पातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात । यथा उद्धरण से स्पष्ट है कि वे मोहनीय एवं घातिकर्मको वेदनीयका विषद्रव्यं मंत्रौषधिबलादुपक्षीणमारणाशक्रिकमुपयुज्यमानं न सहकारी मानते हैं-विरोधी नहीं। मारणाय कल्प्यते तथा ध्यानानल निर्दग्धघातिकमेंन्धनस्यानन्ता- हम प्रो. सा. से नम्र प्रार्थना करेंगे कि वे उन प्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यान्तरायाभावामिरन्तरमुपचीयमानशुभ- अन्धकारोंके, जो उनके मतके विरोधी हैं, वाक्योंको तभी पुद्गलसन्ततेवेंदनीयाख्यं कर्म कदापि प्रक्षीणसहायबलं स्व. उपस्थित करें जब उनपर पूर्वापरके अनुसंधान और सन्दर्भयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति खुदाद्यभावः ।' का स्थिरतासे विचार करलें । यह नीति उनके ही पक्षमें बड़ी -राजवार्तिक पृ० ३३८। विधातक-साधक नहीं-सिद्ध होरही है कि उन ग्रन्थों में कोई 'न हि साधनादिसहायस्याग्नेधूमः कार्यमिति केवल- वाक्य या पंकि उनके पक्षके जरा भी समर्थक मिले और स्यापि स्यात् । तथा मोहसहायस्य वेदनीयस्य यत्फलं सुदादि तुरन्त उन्हें पूर्वापरका विचार किये बिना या तत्तस्थलीय तदेकाकिनोऽपि न युज्यत एव तस्य सर्वदा मोहानपेक्षत्व- विवक्षाओंका समन्वय किये बिना प्रस्तुत कर दिया, भले ही प्रसंगात । तथा च समाध्यवस्थायामपि कस्यचिदुद्भतिप्रसंगः।' उनसे उनका मन्तव्य सिद्ध न होता हो। यह एक मामूली 'वेदनीयोदयभावात सदादिप्रसंग इति चेन, धातिको समझदार भी समझता है कि ग्रन्थकारोंकी यह पद्धति
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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