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________________ अनेकान्त [वर्ष केवली भुत्तिकारणाभावादो त्ति सिद्धं । में भातविषयक और जलविषयक तृष्णाके होनेपर फेवली ___अह जइ सो भुजह तो बलाउ-सादु-सरीरुवचय-तेज- भगवानको मोहीपनेकी आपत्ति प्राप्त होती है। सुहह चेव भुजइ संसारिजीवो व्व; ण च एवं समोहस्स यदि कहा जाय कि केवली तृष्णासे भोजन नहीं करते केवलणाणाणुवत्तीदो। ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदो- हैं किन्तु रत्नत्रयके लिये भोजन करते हैं, तो ऐसा कहना समोहकलंककिए हरि-हर-हिरण्यगन्भेसु व सञ्चाभावादो। भी युक्र नहीं है, क्योंकि वे पूर्ण आत्मस्वरूपको प्राप्त कर श्रागमाभावे ण तिरयणपत्ति तिस्थवोच्छेदो चेव होज, चुके हैं, अत एव यह कहना कि वे रत्नत्रय (ज्ञान संयम ण च एवं, तित्थस्स गिब्बाहबोह-विसयीकयस्स उवलंभादो। और ध्यान) के लिये भोजन करते हैं, सम्भव नहीं है। वह तदोण वेयणीयं धाइकम्मणिरवेक्खं फलं देदि ति सिद्धं। इस प्रकारमे-केवली जिन ज्ञानकी प्राप्तिके लिये तो भोजन -जयधवला मु. पृ. ६८-७१ करते नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया यह पहले अ पात सामी परतया की है और केवलज्ञानसे बड़ा कोई दूसरा झान प्राप्त करने रहे हैं कि वेदनीय कर्म मोहनीयोदयकी सहायताके बिना योग्य है नहीं जिसके प्राप्त करनेके लिये वे भोजन करें । आधादि वेदनाओंको उत्पत्र नहीं करता । दसरे उद्धरणमें संयमके लिये भी वे भोजन नहीं करते, क्योंकि यथाख्यात वीरसेन स्वामी सबलताके साथ वेदनीयमें मोहनीय एवं संयम. जो सबसे बड़ा और अन्तिम है, उन्हें प्राप्त है। धातिकर्मकी सहायकताका समर्थन करते हैं और घाति निरपेक्ष ध्यानके लिये वे भोजन करते हैं, यह कथन भी उसके फल देनेका सख्त विरो करते हैं । उनके इस उद्ध. युक्रिसंगत नहीं है, क्योंकि उन्होंने सब पदार्थोंको जान रण का पूरा हिन्दीभाव हिन्द-टोकाकारों के ही शब्दों में दे देना लिया है, इसलिये उनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही आवश्यक समझता है जिससे सभी पाठकोंको सहलियत नहीं रहा है। श्रतएव भोजन करनेका कोई कारण नहीं रहने होगी। यथा से केवली जिन भोजन नहीं करते हैं यह सिद्ध होजाता है। ___'वेदनीय कर्म केवली भगवानमें अवगुण (दोष) पैदा दूसरी बात यह है कि यदि केवली भोजन करते हैं तो नहीं करता, क्योंकि असहाय है । चार वातिया कर्मोकी वे संसारी जीवोंके समान ही बल, आयु, स्वाद, शरीरकी सहायतासे ही वेदनीय कर्म दुःस्व उत्पन्न करता है। और चार वृद्धि, तेज और सुखके लिये ही भोजन करते हैं. ऐसा धातियाकर्म केवली भगवानमें नहीं हैं। इसलिये जल और समझा जायगा, परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि वे मोहयुक्र हो मिट्टी के बिना जिस प्रकार बीज अपना अंकुरोत्पादन कार्य जायेंगे और ऐसी हालतमें उनके केवलज्ञानको उत्पत्ति नहीं करने में समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार वेदनोय भी धाति हो सकेगी। चतुष्कके बिना अपना कार्य नहीं कर सकता है। यदि कहा जाय कि अकेवली पुरुषोंके वचन ही आगम हैं तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा माननेपर शंका-घाति चतुष्क दावोत्पादक वेदनीय कर्मका राग, द्वेष और मोहसे कलंकित उनमें हरिहरादिककी सहायक है, यह कैसे जाना जाता है? तरह सत्यताका अभाव हो जायगा और सत्यताके समाधान-यदि चार धातिया कोंकी सहायताके प्रभाव होजानेपर प्रागमका अभाव होजायगा और आगमका बिना भी वेदनीय कर्म दुःख देनेमें समर्थ हो तो केवली अभाब होजानेपर रत्नत्रयकी प्रवृत्ति नहीं बन सकेगी, जिनके रत्नप्रयको निर्वाध प्रवृत्ति नहीं बन सकती है. इससे जिससे तीर्थका विच्छेद ही हो जायगा। परन्तु ऐसा न प्रतीत होता है कि घातिचतुष्ककी सहायतासे ही वेदनीय है क्योंकि निर्बाध बोथके द्वारा शात तीर्थकी उपलब्धि अपना कार्य करने में समर्थ होता है। बराबर होती है। अत एव यह सिद्ध हुआ कि घाति कर्मोंकी यदि घातिकर्मके नष्ट होजानेपर भी वेदनीय कर्म दुःख अपेक्षाके बिना वेदनीय कर्म अपने फलको नहीं देता है।' उत्पन्न करता है तो केवलीको भूम्व और प्यासकी बाधा वीरसेन स्वामीके इस युनिपूर्ण विशद विवेचनसे प्रकट होनी चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि भूख और प्यास है कि वेदनीयको फल देनेमें मोहनीय एवं घातिकर्म सापेक्ष
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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