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---- मिद्ध रत्नकरण्ड और भाप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्धी
किरण ४-५
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किया और उसे पाठकोंके सामने अन्यथा रूपमें क्यों रखा ! अत एव मैंने जो बुधादिवेदनाओंको मोहनीय सकृतह यदि उन उदरणों में मोहनीयपर जोर दिया गया है तो वेदनीय जम्य और पातिकर्मसहकृत वेदनीय जन्य बतलाया उसका मतलब यह नहीं है कि वहां उन वेदनाभीको सर्वथा है वह प्रमाणसंगत है। मोहनीय जन्य बतलाया है, किन्तु उसकी वेदनीयमें कार्यकारी केवल वेदनीय तुधादिवेदनाओंका जनक नहीं हैप्रबल एवं अनिवार्य सहायकता प्रतिपादित की गई है। इसी सिलसिलेमें प्रो० सा० मे दो बातोपर विशेष यह सब जानते हैं कि घडेकी जनक मिट्टी है लेकिन कुम्हार जोर दिया है। एक तो यह कि वेदनीयकर्म फल देने में भी उसका अनिवार्य निमित्तकारण होनेसे उसका जनक मोहनीय या धातिकर्मके अधीन नहीं है वह उनसे निरपेक्ष कहा जाता है और 'कुम्भकार' ऐसा उसमें सर्वप्रसिद्ध स्वतंत्र फलदाता है। दूसरी यह कि शास्त्रोंने इन दोनों व्यादेश भी होता है। बस, इसी रूपमें वहाँ मोहनीयपर कर्मोंको विरोधि ही बतलाया है तब मोहनीयवेदनीयका सहकारी जोर दिया गया है। और यह जोर देना शास्त्रसम्मत ही कैसे हो सकता है ? पहली बातके समर्थनमें पापने पूज्यपाद है-अशास्त्रीय नहीं है। यहाँ मैं नमूनेके तौरपर इम की सर्वार्थ सिद्धि (१-१६) और वीरसेन स्वामीकी धवला विषयके एक-दो शास्त्रीय प्रमाण भी प्रस्तुत किये देता हूं:- टीका (१, १-१,७।१,१-१,१८) गत कुछ पंक्रियोंको
मोहकर्मरिपो नष्टे सर्व दोषाश्च विद्गताः । शुद्धत किया है। किन्तु आश्चर्य है कि प्रो. सा. यह भूल छिन्नमूलतरोद्वद् ध्वस्तं सैन्यमराजवत् ॥ जाते हैं कि ये दोनों ही प्राचार्य वेदनीयको फल देने में नष्ट छद्मस्थविज्ञानं नष्ट केशादिवर्धनम् । मोहनीय या घाति कर्माधीन ही मानते हैं। जैसा कि उनके नष्ट देहमलं कृत्स्नं नष्टे धातिचतुष्टये ॥ निम्न उद्धरणोंसे स्पष्ट है:नष्टाः चत्तभयस्वेदा न प्रत्येकबोधनम् ।
'निरस्तपातिकर्मचतुष्टये जिने वेदनीयसद्धावान्तदाश्रया नष्ट भूमिगतस्पर्श! नष्टं चेन्द्रियजं सुखम् ॥' एकादशपरीषहाः सन्ति । ननु मोहनीयोदयसहायाभावात्म
-प्राप्तस्वरूप। दादिवेदनाऽभावे परीपहम्यपदेशो न युक्रः; सत्यमेवमेतत; 'यस्य हि धादिवेदनाप्रकर्षोदयस्तस्य तत्सहनारप- वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परीषहोपचारः क्रियते।' रीषहजयो भवति । न च मोहोदयबलाधानाभावे वेदनाप्रम
-सर्वार्थसि० (पृ. २८९) चोऽस्ति तदभावारसहनवचनं भकिमात्रकृतम् ।'
'ण च वेयणीयं तकारणं; असहेजत्तादो । घाइचउकस.
-तत्त्वार्थवार्तिक। हज संत वेयणीयं दुक्खुप्याययं । ण च तं घाइचउकमस्यि यहाँ मुख्यत: मोहनीयपर जोर दिया गया है लेकिन केवयिम्मि, सदोण सकजजणणं वेयणीयंजलमटियादिवह वेदनीयकी अनिवार्य सहायकतारूप में ही दिया गया विरहियबीज वेत्ति। वेयणीयस्स दुक्खमुप्पाएंतस्स बाइच है। और यही मेरा वहाँ अभिप्राय है। जहाँ सुधादि प्रवृ. उकं सहेजमिति कधं शवदे ? तिरयण-पउत्तिअण्णहाणुत्तियोंके अभावको अतिशय बतलाया है और उन्हें घाति- ववत्तीदो। कर्मक्षय जन्य प्रतिपादित किया गया है वहाँ भी घातिकोंकी वाइकम्मे ण संते वि जइ वेयणीयं दुक्खमुप्पायह तो वेदनीयमें अनिवार्य सहायकता ही वर्णित की गई है। और यह सतिसो सभुक्खो केवली होज ? ण च एवं; भुक्खातिसासु वर्णन भी स्वकाल्पनिक या अशास्त्रीय नहीं है-शास्त्रीय कर-जलविसयतण्हासु संतीस केवलिस्स सम.हदावत्तीती। ही है। यथा
सण्हाए ण भुजइ, किंतु तिरयणमिदि ण वो जुत्तं; 'अस वेद्योदयो वातिसहकारिव्यपायतः । तस्थ पत्तासेससरूवम्मि तदसंभवादो । तं जहा. ण ताव स्वस्यकिंचित्करी नाथ ! सामग्रया हि फलोदयः ॥ णाण8 भुजह पत्त केवलणाणभावादो। ण च केवलणाणा
-प्रादिपुराण २५ वो पर्व दो पहियमण्णं पस्थणि णाणमस्थि जेण तद केवली 'पातिकर्मोदयसहायाभावात तत्सामर्थ्य विरहात् ।' भुजेज । ण संजम' पत्तजहाक्खादसंजमादो। उमाण
-तत्त्वार्थवार्तिक । विसईकयापेसतिवणस्स ज्झेयाभावादो। भुजावली