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________________ साहित्यप्रेमी श्री अगरचन्दजी नाहटा (ले०-श्री हजारीमल वाँठिया) श्री अगरचन्द नाहटा-हिन्दी साहित्य संसारमें सर्वत्र जन्म-श्रीमान् नाहटा नीका जन्म वि० सं० १९६७ प्रसिद्ध हैं। बीकानेर के प्रमुग्व माहित्यकारोंमें स्वामी नरोत्तमः चैत्रबदी ४ को बकानेर के लभ प्रतिष्ठित श्रोसवाल कुल में दासजी और दशरथ जी शर्मा के बाद श्राप ही का नाम लिया श्री शंकरदानजी नादटाके घर में हुआ। श्रार अपनी माता जाता है। आपने हिन्दी माहित्य के इतिहासमें जो सेवा की पिताकी कटि संतान है । आपके ज्येष्ठ भ्राता श्री है, वह अभिनन्दनीय है। हिन्दी साहित्यके प्राय: सभी भैरोदानजी. सभयराजजी और मेघराजजी बीकानेर के कर्मठ साहित्यकारोंका यह मन्तव्य रहा है कि जैनोंने हिन्दी में कोई समाजसेवी एवं मिलनसार व्यक्ति हैं। महत्वपूर्ण रचना नहीं की है, जो की भी है वह साम्प्रदायिक बाल्यजीवन और शिक्षा-जैसा कि ऊपर लिखा जा है। पर आपने अपने लेग्यो द्वारा हिन्दी साहित्यकारोंको यह चुका है, अापने साधारण शिक्षा ही प्राप्त की है। इसका भ्रमात्मक सिद्ध करके प्रमाणित कर दिया है कि प्राचीन- कारण यह है कि आपके ज्येषु भ्राता स्व. श्री अभयगमजी काल में भारतीय संस्कृति और हिन्दी साहित्यके निर्माणमें नाहटाका, जो अच्छे, विद्वान् एवं एफ. ए. प्रीवियस थे, जैनविद्वानोंका पूरा पूरा हाथ रहा है अतः वे हिन्दी-साहित्य २२ वर्षकी अवस्था में अकाल देहान्त हो जानेके कारण के इतिहासमें गौरवपूर्ण स्थान पाने के अधिकारी है। अतः आपके पिताश्रीने प्रारको ज्यादा शिक्षा नहीं दिलवाई। अापके इस कार्य के लिये हिन्दी-साहित्य हमेशा ऋणी रहेगा। श्रापको शिक्षा केवल ६ कक्षा तक स्थानीय श्रीजैनपाठशाला श्राश्ने उच्च शिक्षा प्राप्त न करके भी साहित्य क्षेत्रमें अपने में हुई। श्रापकी साहित्यमाधनाके विषयको लेकर "तरुणअध्यवसाय लगन कर्मठता द्वारा जो उन्नति की है वह जैन" के संपादक श्री भंवरमल जी सिंधी, बी०ए. साहित्यअनुकरणीय है। श्राप अभी नवयुवक हैं, फिर भी आपकी रत्म' ने लिखा हैप्रतिभाकी प्रशंसा वयोवृद्ध श्रद्धेय श्रीभाजी, मुनि जिनविजय 'यह श्राश्चर्य और उल्लामकी बात है कि एक कुशल जो श्रादिने मुक्तकंठसे की है। और व्यस्त अध्यवसाय होने के साथ-साथ श्रीनाहटाजीको इन पंक्तियाँका लेखक अापके अान्तरिक एवं बाह्यसे साहित्यके अध्ययन और खोजका हनना शोक हे कि कालेज सुचारु परिचित है । यह श्राप ही की कृपा एवं सत्संगका और यूनिवर्सिटीकी शिक्षा न प्राप्त होने पर भी आपने अपने फल है कि इस लेखके लेखकको भी सरस्वतीकी उपासना अध्यवसाय द्वारा भाषा और माहित्यमें अच्छी प्रगति की।" करनेका सुअवसर प्राप्त हुया और उसने अपनी कुछ तुच्छ नवजीवनका अभ्युदय-पाठशालासे विदा लेकर रचनाएं हिन्दुस्तानी', 'अनेकान्त'. 'समाज-सेवक' चाल. श्री नाहटाजी व्यापारिक क्षेत्रकी श्रार अग्रमर हप। इसके लिये श्रापने सर्व प्रथम १४ वर्षकी अल्पायुमें वि० सखा', 'भुनभुना', 'जैनसत्यप्रकाश', 'जैनध्वत्र', 'वीरपत्र' और 'जैन' श्रादि कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाई। सं० १९८१ मिति प्राषाढ़ मुदी ६ को सिलहट कलकत्ता श्रत: अधिक जानकारी रखनेके कारण संक्षिप्त परिचय श्रादिकी यात्रा व्यापारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये की। डेढ वर्षकी लंबी यात्रा कर श्राप वापिम बीकानेर वि. प्रकाशित कर रहा हूँ। सं० १८८३ में आये सौभाग्यवश वि० सं० १९८४ माघ १ हिन्दीसाहित्यका प्रारंभिक-वीरगाथाकालके सम्बन्धमें सुदि ५ को प्रात:स्मरणीय स्व. श्री कृपाचन्द्र सूरिजी व उन अापने गहरी छानबीन कर नवीन प्रकाश डाला हे इस के शिष्य उपा० सुग्वसागरजी महाराज बीकानेर पधारे और सम्बन्धमें श्रापके नाम प्रवर राजस्थानीमें प्रकाशित श्राप हीके बाबा-श्रीदानमलजी नाहटेको कोटड़ी में विराजे ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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