SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रद्दीम प्राप्त हस्तलिरिक्त जैन-अजैन ग्रन्थ अर्सा हुश्रा यहां सरसावामें श्रीपूज्यों (श्वेताम्बर यतियां) की, जोकि प्रायः सस्त्रीक रहते थे और वैद्यक-ज्योतिष तथा मन्त्र तन्त्रादि अनुष्ठानों द्वारा अपनी आजीविका चलाते थे, एक गद्दी थी। इस गद्दीके अन्तिम अधिकारी शङ्करलाल रिखके मरनेपर उसके चेले आदि उत्तराधिकारियों में परस्पर झगड़ा हुआ, मुकदमेबाजी चली और जंगम सम्पत्तिमेसे जो माल जिसके हाथ लगा उसने उसको इधर-उधर खुर्द-बुर्द किया । चुनाँचे एक उत्तराधिकारीके द्वारा कुछ हस्तलिखित और मुद्रित ग्रन्थ बांगेम जैम में भरकर एक अजैन बोहरे बन्शीलालके यहाँ रखे गये। वर्षों तक ये ग्रन्थ बोरामें ही बन्द पड़े रहे और अनेक प्रकारके मर्दा-गर्मी तथा चूहो अादिके आधात सहते रहे । कई बार मैने इन ग्रन्थोंको देखना और यह मालूम करना चाहा कि यदि इनमें कुछ ग्रन्थ अपने उपयोगके हों तो उन्हें खरीद लिया जाय; परन्तु वे देखने तकको नहीं मिल सके । कुछ अन्य भयके साथ यह भय भी दिग्वाने वालोको रहा है कि इन ग्रन्थोंम पृत्योंकी मंत्र-तंत्रादिविषयक न मालूम कानसी निभ छुपी पड़ी है, वह कहीं दूसरोक हाथ न लग जाय । अाखिर ये ग्रन्थोंके बारे किसी तरह उक्त बाहरे कुटुम्बके ही हारहे, जो संस्कृत प्राकृत तो क्या, हिन्दीका भी भले प्रकार जानकार नहीं था। उमक व्यक्तियोंकी और मे वैद्यकादि विषयकके मुद्रित ग्रन्थ तो कुछ बेचे गये पार कुछ वैसे भी किमी किमीको दिये गये सुने गये; परन्तु हस्तलिखित ग्रन्याको प्रायः गुम ही रक्खा गया और उनके साथ उस कृपण-जैसा व्यवहार किया गया जो सम्पत्तिका ननी स्वयं उपभोग करता है और न दुसराको करने ही देता है। उनकी को सुव्यवस्था भी उनमे नहीं बन सकी ग्रार व जैम नै गड्डा में बँधे हुए पड़े रहे तथा जीण-शीण होते रहे। देवयोगस उक्त बाहरे कुटुम्बका दरिद्रताने आधेग बार फिर कुछ अर्मेके बाद कुटुम्बके प्रायः सभी युवक जन-.. हर कर्ट नो-जवान भाई-थोड़े ही समयमें आगे-पीछे चल बसे-कालकालत होगये !! ऐसी स्थितिम ग्रन्याक अवशिष्ट बोरे अन्तको रहीम त्रिके, जिन्हें एक जैन परिवारने ख़रीदा। यह परिवार भी मस्कृत-प्राकत मापाने अनमिज पार हिन्दीकसी यथेष्ट ज्ञानस अपरिचित था, इसीम इस परिवार के नवयुवक हकीम नानकचन्दने होममें निकले हुए कछ ग्रन्या को कई वर्ष हुए वीरसेवामन्दिरके एक विद्वान् पं० ताराचन्द जी जैन न्यायतीथको यह जानने के लिये दिखलाया था कि उनका नामादिक क्या है। उम ममय उनको यह प्रेरणा की गई थी कि जो वैद्यकादिक ग्रन्थ अापक मतलबक हा उन्हें तो श्राप रखलें, शेष ग्रन्थों को श्रीजिनमन्दिरजीमं विराजमान कर देखें अथवा वीरसेवामन्दिरको अर्पित कर देवः परन्तु उसपर उन्हों ने कल ध्यान नहीं दिया ! दुर्देवसे उक्त हकीम साहबका कुछ अर्से के बाद अचानक दहावमान होगया ! बादको उनके नाना-चाचा गुलशनरायजीने, जो अत्तार पंसारीकी दुकान करते है, कुछ ग्रन्या को ती फाडफादकर अपनी दुकान पर पड़िया बांधनेक काममं ले लिया पार कुलको रद्दीकी महँगाईके जमानमें हलवाइयाँ तथा पनवाटिया आदि को बन दिया, जिसका अपनको उस वक्त कोई पता नहीं चला। और इस तरह अनभिजा पानी के हाथ पर कितने ही ग्रन्थों की कमी दुर्दशा हुई ! इस विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है। जब हकीम नानकचंदके देहावसानको कुछ महीने श्रीन गये तब इधरम गत वर्ष ला० गुलशनगयजीको उन ग्रयों को दिखलाने श्रादिकी प्रेरणा की गई जो हकीमजीको रहीम प्राप्त हुए थे। इसपर उन्हा ने ग्रंथा की अवशिण माग रहीको रद्दीके ही रूपमें वीरसेवामंदिरको दे देनेकी स्वीकारता दी और बदलेग दृमरी दी ले लेनेकी उदारता दिग्वलाई। इस कृपाके लिये श्राप धन्यवादक पात्र है। ___एक दिन वीरसेवामंदिरके सभी विद्वानों ने मिलकर इस रहीकी जांच-पड़ताल की, जी ग्रंथ पूर्ण पाये गये उन्हें अलग तथा अपूर्णको अलग रखा गया और दोनों को अलग-अलग बस्तों में बाधा गया। माथ ही वगिद्धत पत्रीका
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy