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________________ किरण २] हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्म-परीक्षा कंचन धर्ममपाकृतदोपं गोचर होते हैं। सादा एक और वास्तविक स्थिति यह है यो विदधाति पत्र सुरवानि ॥ कि श्रीमतगतिने अनायाम। जिन पाकृत शब्दाका उपयोग पुत्रकलत्रघनादिपु मध्ये किया है उनके स्थान पर संस्कृत शब्दार को वह श्रामानासे काऽग्नि याति समं परलोके । कामम ले मकने थे । मिरानो नो इम कार्य पर पहुंचे है कि कर्म विहाय कृतं स्वयमेकं प्रस्तुत रचना के कुछ अध्याय किमी प्राकृत मृत अन्य के कत्तुंमलं सुखदुःखशतानि ।। प्राधा ने पार किए गए हैं। छोहाग (७-६३) और कोऽपि परोन निजोऽस्त दुरन्ते मंकारतमठ (७-१०) जें में उपयुक्त नाम इस बात की पुष्ट जन्मवने भ्रमता बहुमागें। करते है कि कुछ कथा श्रवणही कि.मी मूल पाकन इत्यमवेत्य विमुच्य कुबुद्धि रचनासे ली गई है। एक स्थान पर इन्होंने संस्कृत योषा ___तात हिनं कुरु किचन कार्यम् ॥ शब्दकी शाब्दिक व्युत्पात बनाई है और उनक, हम उल्लेख मोहमपास्य सुहृत्तनुजादी में । मालूम होता है। वे किमी मूल प्राकृत रचनाको देहि धनं विजमाधुजनेभ्यः । इं। फिर से लिख रहे हैं। अन्यथा मम्कनके योषा शब्दको संस्मर कंचन देवमभीष्ट जप जीष जैसा कि पासे निपन्न करना श्रीमतगान के लिए येन गति लभसे सुग्वदात्रीम् ।। कहां तक उचित हे ? व पद्य निम्न प्रकार है-- यता जापयति क्षिप्रं विश्वं योपा नती मता। (एफ) आमतगति अपनी निरूपण-कलामें पूर्ण कुशल विदधानि यतः क्रोधं भामिनी भरायते ततः ।। हैं और उनका सुभाषितमन्दोह' सालंकार कविता और यतश्लादयते दोषस्ततः स्त्री कथ्यते बुधैः । अत्यन्त विशुद्ध शेलाका सुन्दर उदाहरण है। 'वद संस्कृत चिलीयो यश्चित्त मेनम्या विलया ततः ॥ भाषा के व्याकरण और कोष पर अपना पूर्णाधिकार समझते उपालिग्नित संकन हम निगा यपर पहुँचने के लिए हैं और क्रियाश्रम भिन्न भिन्न शब्दोकी निष्पत्ति में उन्हें पर्याप्त है कि अमित गनिने कि.मी मूल प्राकृत रचनाके सहारे कोई कठिनाई नहीं मालूम होती।' इनकी धर्मपरीक्षाम अनु अपनी रचना तैयार की है। इममें मन्देह नदी का उपदेशसन्धान करनेपर बहुत कुछ प्राकृतपन मिलता है। लेकिन पूर्ण विवेचनोंम उन्दाने स्वयं ही स्वतंत्ररूम लिया है। अपेक्षाकृत वह बहुत कम है और सुभाषितसन्दाहम तो हमें ही नहीं, बल्कि अमितगतिको भी इस बातका विश्वास उसकी ओर ध्यान ही नहीं जाता। धर्मपरीक्षामं जो प्राकृत था कि उनका मंम्कत भाषापर अधिकार है । उन्नीने लिखा का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है वह केवल कुछ उधारू शब्दो है कि मैंने धर्मपरक्षा दो महीने के भीतर और अपनी संस्कन तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह अधिकाशमं धातु-सद्ध अाराधना चार महीने के भीतर लिख कर ममाम की। शब्दांके उपयोग तक पहुँच गया हे जमा कि हम कुछ यदि हम प्रकारका कोई प्राशुकवि प्राकृत के ढांचका अनुउदाहरणासे देव मकते हैं । 'जो धातु-रू । भूत कर्म-कृदन्त मरण करता हुआ मंस्कृत में उन रचनाओको तैयार करता के रूप उपयुक्त किया गया है वही बादका प्राकृतमें करीब है तो इसमें श्राश्चर्य की कोई बात नहीं है । इसके साथ ही कगब क रूपमें व्यवहृत हुअा है। और यह ध्यान देनेकी श्रभितगति मुन और मोजके समकालीन थे, जिन्होंने अपने बात है कि द्विवचन और बहुवचन में प्राशासूचक लकार के ममयकी संस्कृत विद्याको बड़ा अवलम्ब या प्रोत्मादन दिया स्थान में स्वार्थ-सूचक लकारका उपयोग किया गया है। था। उनकी प्रागधना इतनी अच्छी हे जसे कि वह शिवाये उत्तरवर्ती प्राकृत में भी इस प्रकारके कुछ नत्मम प्रयोग दृष्ट. --- ...२ डी धमपरीक्षा देम अमिनगनि पृ० ७-६ १ काव्यमाला नं.८२ में संगदिन, और स्मिटके जर्मन ३ देखी पं० नाथरामजी प्रेमीका 'अमितगतिका ममय और अनुवाद के साथ लीजिग १६०८ और सिद्धनाथ प्रचारिणी उनकी रचनाएँ' शीर्षक निबन्ध । ( 'जैनसिद्धान्तभास्कर' सभा कलकत्ताके द्वारा हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित । ८-१०२६-३८)।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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