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________________ अनेकान्त {वर्ष ८ शेष कर्मोंके उदय और सत्व दोनोंका अस्तित्व सिद्ध स्वभावका प्रतिबन्धक श्रायुकर्मका उदय और सुग्वका प्रतिहो जाता है। बन्धक वेदनीयकमका उदय भहन्तोंमें पाया जाता है। १४ प्रश्न-कमोंका कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप अतएव प्रहन्तों और सिद्धों में गुणा कृत भेद मानना ही पड़ेना। जन्म, जरा और मरणसे युक्त संचार है जो अन्तोंके नहीं वीरसेन स्वामीके इन प्रश्नोत्तरोंमे सूर्य प्रकाशवत् पाया जाता, तथा अधातियाकर्म प्रारमाके गुणोंका घात सुस्पष्ट हो जाता है कि महन्तावस्थामें भी वंदनीय कर्म करनेमें असमर्थ भा है, अतएव मिद्धों और अइन्नों में गुण- अपने उदयानुसार सुखमें बाधा उत्पन्न करता ही है, कृत कोई भेद नहीं पाया जाता ? जिसमे प्रहन्त केवली भगवानका सुख मिद्धोंके ममान उत्तर- यह बात नहीं है, क्योंकि जीवके ऊर्ध्वगमन- अव्यावाध नहीं।। (शेष अगनी किरण में) हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा (लेखक-डा० ए० एन० उणध्ये, एम० ए० ) ( अनुवादक-साहित्याचार्य प० गज कुमार शास्त्र ) [ गत किरणसे भागे] (३) (३) इरिषण २.११----- रण द्धण जागविणु जारादि तप्पिय-श्रागमणास किएदि । मुक्की झड ति भाडे विकेम परिपक्क पंषि थिय बोरि जेम । णिय-पय-अागमणु मुगतियाए किउ पामय-पिय-तिय-वेसु ताए । अमितगति, ४.८४-८५पत्युरागममवेत्य विटौषैः सा विलुएट्य सकलानि धनानि । मुच्यते स्म बदरीदर युक्तस्तस्कवि फलानि पविस्था । सा विबुध्य दयितागमकालं कलितोत्तममस्वीजनवेषा। तिष्ठति स्म भवने अपमारणा वचना दि सहजा वनितानाम् ।। हरिषेण २, १५-- भणि उ तेण भो णिसुणहि गहवह, छाया इन दुगेझ महिला-मइ । (४) अमितगनि ५,५६ चंपाव स्वार्थतान्नष्ठा वाहनाले तापिका। छायेव दुग्रदा योपा मन्ध्येव क्षणांगणी॥ (५) इग्गिंग २,१६-- भांग उ ताय संमार असारए कोविण कामु वि दुइगरुपारए। मुय-मणु महु अत्थु गा गच्छद मयणु ममाणु मारम अणुगच्छइ । घम्मादम्म ग्वरु श्रगुलगाउ गच्छद जीव हु सुह-दुइ-संगउ । इय जाणेवि ताय दाणुल्ल 3 चिनिजइ सुपत्ते अइभल्लउ । इट-देउ गणय-मणि झाइ जह सुह-गइ-गमणु जेण पाविजह । अमितगनि ५, ८२-५तं निजगाद तदीयतनूजस्तान विधेहि विशुद्धमनास्त्वम् । (५)
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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