SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण १] रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक मिद्ध नहीं नवक बनध होता हो और चाहे न होता हो। अनुषंगिनी है। अतएव पयोगि भयोगि कवलियोका ज्ञान वेदनीय कर्मकी बनध व उश्य व्यवस्था यह है कि उमा भौर सुख अन्य अघानिया को अतिरिक्त वेदनीय जन्य तीम कोडाकोडी मागरका उकृष्ट स्थितिबंध कम होते- वेपनाश्रोस विशिष्टता रहता ही है, और यही एक विशेहोते सूचममाम्पराय गुण स्थानके अन्तिम समय में उसका पता नएघातिक केवलियों और विनकर्म मिद्धोंके अनुजघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहतका होता है। जब जीव इस भवन में पाई जाती है। मिद्वीको कोई माता-माता रूप गुणस्थानम ऊपर जाकर प्रबन्धक हो जाता हैं उस समय कर्मफन भोगना शेष नहीं रहा, इससे उनका सुख अव्याउसके वेदनीय कर्मका पूर्व मंचित स्थिनिमय अपने बाध कहा जाता है परन्तु पयोगि-अयोगि केवलियों को अपने भविनाभावी योग्य अनुभाग माहित असंख्यात वणं प्रमाण माता-श्रमाता कमो का फल भोगना ही परना है और इमी का रहता है जो क्षीण कषाय और मयोगी गुस्थानों में भी में उनका सुग्व सिदोंक समान अव्याचाध नहीं है। बराबर अपना माता व अमानारूप वंदन कराया करता धवनाकार (4gों और अन्नाम भेद बतलाते हुए कहते हैंहै । पयोगी गुणस्थानमें श्रायुके अन्तमुंहतं शेष रहने पर सिद्धानामहतां चको भेद इति चेन, नशष्टकर्माणः यदि उपका स्थितिमत्व प्रायुप्रमाणाम अधिक शेष रह पिद्धाः, नष्टधानिकर्माण हन्त: नि नयाभेदः । नष्टषु गया तो केवल। समुद्धात द्वारा उसकी स्थिति भायुप्रमाण घातिकमम्नाविभू नाशेषामगुगावान गुणा कृतम्तयो द इति कर ली जाती है। इसम कम उमका मिति पत्र दारि चेन्न अधानिकर्मोदय सत्वोपलम्भात । तानि शुक्लध्य ना. नहीं हो सकता और इमामे अयोगी गुणस्थानमें भी प्रायु निनाधंदग्धावामन्यपि न स्वकार्यकर्तृणानि चेन, पिण्डके अन्तिम समय तक उपका माता व अमावारूप उदय निपातान्यथानुपप ततः श्रायुयादिशेषकर्मोदय मवास्तित्वकंवलीको भोगना ही पड़ता है। अतएव न्यायाचार्यजीका मिते: । ताक यम्य अनुरशीतितक्षयान्यामकम्य जाति जरा यह कथन कि "केवलीमें विना थिनिबध और अनुभाग- मरणाप जक्षितम्प समारम्यापरवानेपामामगुणघातन माम. बन्धक सुख और दुख की वेदना किसी भी प्रकार संभव ाभावाच न तयोर्ग गाकृतभेद इति चन अायुष्य वेदनीयो नहीं है" पर्वथा कामद्धा के प्रतिकृत है और कंवलीमें दययोनीवावंगमन सुम्पप्रतिबन्धकयोः मत्त्वात । माता व अपाता कर्मजन्य सुग्व दुग्वकी वेदनाय सिद्धान्त (पट ख. भा. १ पृ. ४६-४७) मन्मत हैं। अर्थात-- (६२) कवली में सुग्व-दुग्बकी वेदन ये निद्धान्त मम्मन हैं! प्रश्न - मिद्धों और अन्तीम क्या भेद है ? पंडितजीकी आशंका है कि "केवलोके सुख दुखकी उत्तर - मिन्दीक श्राठों कम नष्ट हो गये है, परन्तु वदना मानने पर उनके अनन्तमुग्व नहीं बन सकता" अन्नोंके केवल चार धानिया कम ही नए हुए है. यह किन्तु यदि ऐसा होता तो फिर कमसिद्धान्तमें कंवलीक दोनाम भेद है। माता और धपाता वेदनीय कर्मका उदय माना ही क्यों २ प्रश्न-घानिया कमों के नाश हो जानम तो मारमा जाता? और य द सुख दुख की वेदनामात्र किमी जीवके के समस्त गुण प्रकट हो आते हैं. इस लिये गुणों की अपेक्षा गुण का घान होता तो वेदनीय कर्म अधातिया क्यों माना तो दोनों में कोई भेद नहीं रहता ? जाता? हम ऊपर देख ही चुके हैं कि वेदनीय जीयक गुणों उत्तर-- ऐमा नहीं है, क्योंकि अहन्ताम अधातिया का घात तो तभी तक करता है जब तक वह मोहनी से कर्मों का उदय और माव दोनों पाये जाते हैं। अनुलिप्त रहता है। किन्तु अपने अघातिया रूप उदपमें ३ प्रश्न ये अघातिया कर्म तो शुक्नध्यावरूपी तो वह प्रायु. नाम व गोत्र कर्मों के समान फल देते हुए अग्निपे अधजले हो जाने के कारण होते हुए भी अपना भी जीवके गुणोंका घात नहीं करता। हम ऊपर राजवानिक कोई कार्य नहीं कर पाने ? कारिका मत उद्धन कर चुके हैं जिनके अनुसार घेदनीय उत्तर-ऐसा भी नहीं है, क्यों कि शरीरके पतनका जन्य वेदना ज्ञान दर्शनको विरोधिनी नहीं किन्तु उनकी प्रभाव अन्यथा सिद्ध ही नहीं होता, अतएव प्रायु मादि
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy