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________________ किरा १ वीगेप देश १०३ साधनोंमें परिवर्तन होता जा रहा है. हजार वर्ष पहिले अनुसार परिमाण-समाजमें विलामना नहीं बनने देतासमाजको सुख पहुंचाने वाले जो साथन थे श्राज उनमें यागवृत्तिका श्रोर समाजको आमंत्रिन करता रहता है, घोर परिवर्तन हो गया है। मनुष्य-समाजको अपनी जिंदगी अतिसंग्रहम जो सामाजिक हानि होती है उसका ममूल कायम रखने के लिए प्राचार-विचारों में भारी परिवर्तन करना नाश करता है। इसके अलावा वीरने बतलाया कि :यक पड़ा है। इस लिए युग-धर्मने भी अपना स्वरूप जन-सुख मनुष्य यदि वह सेवा-भावसे प्रेरित हो निवृत्तिके पथ पर की सीमा में निहित कर दिया। पहिलं जब 'युगल' (लडका- चले तो नरम-नारायया हो सकता है। इसमें जानि-भेट लडकी) एक माथ पैदा होते थे वे वहिन भाई न होकर बाधक नहीं हो सकता, मनुष्य जाति सिर्फ पेशे की वजह से नर मादाक रूपमें रहते थे. वही दोनों मिलकर मन्तान चार भागोंमें विभाजित है पर वह एक मानवजाति के पैदा करते थे जिनके कि वंशज अाज हम सब है, पर अज अतिमि और कुछ नहीं है। श्रार्य और ग्लच्छ यह भेद वह नियम समाजने अपनाया नहीं, इस लिए धर्म भी उसे भी भौगोलिक हैं तथा मदाचार और कदाचार सूचक है। पाप कहता है। यदि वैसा व्यवहार आज कोई करे तो इसके अतिरिक्त, भगवानन नावंपदेशमें बतलाया कि समाज मे अपनसे अलग कर दंगा और धर्मशास्त्र भी जगन चलने वाली चीज़ है, वह स्वयं चलनी है, जगतका उमे अनुमति न दवंगे, पर उस युगमें न तो समाज में प्रत्येक परमाणु गतिशी हे स्वत: पहिली अवस्थाका व्याग, बुग समझता था न धर्मने ही उपको बुग कहा, इसलिए अगली अवस्थाकी संप्राप्ति करता हया भी नाश नहीं होता-- जिम युगमें जिन पदाचारों समाज सुग्ख पाना है वही मदा- जगतका कण कण पाद व्यय, धीच्यामक है, जगतका चार उस युगका धर्म बन जाता है। धर्म धारण करने की वस्तु न कोई निर्माता न रक्षक न महारक है. वह गमनशील है.न कि दिखावकी, अथवा मिर्फ शाम्रोंमें लिम्बे रहने की। हान र हातन बदबता रहता है-श्रागे भी यही क्रम जारी सदाचारके जो नियम वीरभगवानने बतलाए वे मनप रहगा- इममें न ना किसी चीजकी नई पैदायश होता। में पांच हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य श्रीर अपरि- न इसमेग किमी वस्तु का नाश हो हश्रा है। इंश्वरको भी ग्रह । जो इनका पूर्णरूपेण पाजन करता है वह ऋपि और जगतकी गतिशील नाके नियमांको बदलनेकी शाम प्राप्त जो एक देश पालन करता है वह गृहस्थ श्रावक कहलाता नहीं है, ईश्वर सिर्फ शुद्धा मनावका नाम है, न कि है। इन नियमोम समाज सुखी होता है, इस लिये इस किमी का धनांका। अनन्त विश्व बी। मनुष्य एक युगने इस धर्म टहराया, इन पोन नियमोंक पालन करनेम छटा पा जानवान प्राणी है, हमने अपने बुद्धि बम मनुष्य समाज परम्परौ किमीका घान नहीं कर सकना- प्रकृति के बहनसे रहस्यों को जान लिया है, और अभी अनन्न एक दूसरे में बंधुभाव पैदा होता है । भृट बोलका समाजका रहस्य विश्वक इसके जानने के लिए बाकी है और वह मुसमान और अपना पतन नहीं कर पाना .... समाजकी व्यः उत्तरोत्तर क्रमिक विकामके माथ चरम विकामावस्या उन वस्था पत्यके महार घडीकी तरह नियमपूर्वक होती रहती सब रहस्यों की जान लेना है और तब वह स्वयं भी सर्वज्ञ है. समाजके सुम्ब में वृद्धि होती है। चारीकी इच्छा नष्ट करने परमात्मा ईश्वर बन जाना है। से मनुष्य कर्मठ बनकर किमीको संपत्तिपर कधि नहीं वार भगवान की इस महत्वपूर्ण दशनाने ही । नुष्य करता न भालपी हो । समाजका भारम्प बनना है। समाजको अपना और ग्वींचा, प्रेमका पाट सिम्बाया, वस्तुतः देश ब्रह्मचर्य अच्छी मन्नान समाजको देता है. एकपनं व्रत धर्म सबके पालन करने की चीज है इस लिए जैनधर्म म. मनुष्य का प्रेम एक नारीक रग-रगमें व्याप्त कर स्त्रीममाजको धर्म है । हमे बिना किसी भेदभावक मय प्राणी पाजन कर सुख पहंचाकर पुरुषको बलवान बनाना है-पूर्णब्रह्मचारी सकते हैं, यह मंतापहा प्राकृतिक नियमांग बना म्वारकमेंट बनकर समाजकी निरपन मेवा करता है-माज लबी धमरे, जिम भी अपना मनाप दर का मनन शान्तिकी सुखी होता है। अपरिग्रहका व्रत--परिग्रह का श्रावश्यकताक जरूरत हो वह इस पान कर शान्ति लाम कर सकता है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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