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वीरोपदेश (लेखक-श्री पं० लोकमगिण जैन )
प्राजमे करीब २५०० वर्ष पहिले वीर प्रभुने जन्म उन्होंने साफ शब्दों में बतलाया कि कोई जाति-विशेष लिया था, उस समय भारतवर्ष में ब्राह्मणाका प्रमुख था अवध्य न होकर जमके गुण-परोपकारी भावनाएं ही उनकी सर्वत्र गति थी। वेदोंमे, रामायण से उन्होंने इस बात अवध्य होती हैं। वेदमहिला कानेका श्रादश न है वे तो के प्रमाण पत्र ले रखे थे कि 'गो, ब्राह्मण सदा अवध्य हैं.'
प्रात्मवत् पर्वभूतेषु' की पुकार जगा रहे हैं. वे कभी नहीं इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणवर्गमें एक विकृति कहते कि मक पशुओं की बलिसे ईश्वर तुष्ट होकर उन्हें हो-विद्वान तो थे ही वेदोंसे वाक्य लेकर उनका इच्छा- परमधाम में स्थान देता। जगह जगह वीरने सभाएं की मुकुल अर्थ करके हिंसक प्रवृत्तिमें लीन हो गए यज्ञमें जानना
उनमें अहिंसा तत्वका दिग्दर्शन कराया-हर एक प्राणी
, हवन किए हप पश स्वर्ग जाते हैं और यज्ञ करने वाले अपनी जिन्दगी कायम रखना चाहता है और जिन्दीवाना तो स्वर्ग जाते ही हैं-उन्हें परमधाम प्राप्त होता है । के साथ रहना पसंद करता है. अतएव जियो और जीने दो कहने लगे तथा हिंसक यज्ञको वेदपि विहित बताकर अश्व- -यह उपदेश दिया। मेधादि यज्ञ कराने लगे, और उसके श्रमस्वरूप असंख्य
जिस तरह हिंसकयज्ञांक विषय में वीरने आवाज उठाई द्रव्य भेंटमें प्राप्त करने लगे इस तरह हिंसक यज्ञोंको धर्मकी
उसी तरह ईश्वरतत्वक विषयमें भी। जो लोगोंकी अमत पोशाक पहना कर असंख्य पशुओंको अग्निके हाथों स्वर्ग
धारणाएँ थी उन्हें दूर करने में अनथक परिश्रम किया. जिस भेजनेमें तल्लीन होगए। समाजका उपयोगी पशुवर्ग जय
समय ईश्वर-तत्वपर वारोपदेश हुश्रा सारी दुनिया एकदम स्वर्ग वसाने लगा तो यहां इसकी कमीसे मनुष्योंको भारी
सन्न रह गई । वीरने बतलाया कि ईश्वर ज्ञानतत्व नुकसान उठाकर तकलीफोंका सामना करना पड़ा और
से जुदा नहीं है, ज्ञानपुंजका नाम ही ईश्वर है, वह सत्यके हिंसक प्रवृत्तिमे सारा भारतवर्ष लोहूलुहान होगया, और
सहारे स्थिर है, दुनियाके निर्माण में, रक्षा करने में और वह सब हुमा धर्म नामसे, वेदोंकी भाज्ञासे, ब्राह्मणों के
उसके संहार करने में वह अपनी शक्तिका कोई उपयोग नहीं कर-कमलों द्वारा ! इस लिए महान संकटोंका सामना करने
करता, सारी दुनियाका कार्य प्रकृति के महारे चलता रहता पर भी जनता ब्राह्मणोंके भयसे उफ़ न कर सकती थी।
है । ईश्वरको भी प्रकृतिके नियमोंका पालन करना भीतर ही भीतर इसे हिंसा-कापडोस मनुष्य-समाज म्या
पड़ता है, न वह किसी तरह रुष्ट किया जा सकता है न कुल हो उठा था, जरूरत थी ऐपी महान विभूतिकी, जो
उसे खुश ही किया जा सकता है। खुशी और नाराज होने इनके विरुद्ध प्रावाज उठाकर प्राणों की बाजी लगा देवे ।
के समस्त कारण उमसे दूर होगए हैं, उपे किमी चीनकी प्रकृतिने ऐसे संकटकाल में वीर प्रभुका प्रमव किया, वयस्क
जरूरत नहीं रह गई है वह प्रारमतत्व परमानन्द अवस्थामें होते ही उसने जनताकी दर्दभरी माहको पहचाना, घर
जीन और समदर्शी हो चुका है, वह हमारी प्रसन्न -प्रद्वार, राज-पाटका मोह छोद जंगल की ओर चल पड़ा।
प्रसन्नताकी कोई अपेक्षा नहीं करत: । इस वैज्ञाकि विवे१२ वर्ष की घोर तपस्याके बाद उसने जो मननके द्वारा ज्ञान
चनसे मुमुक्षु लोग वीरके झंडे के नीचे श्राने लगे, इस तरह शक्ति प्राप्त की थी उससे दुनियाको धर्मका उपदेश देना शुरू
ईश्वराज्ञाकीनोट में किये जारहे हिंसक यज्ञोंका अन्त होगया। किया। उन्होंने जीवन्मुक्त अवस्थामें ही हिंसाके विरुद्ध बलन्द आवाज उठाई. जिसे मेघध्वनि कहा जाता है। वह वीर भगवानने धर्मकी व्याख्या प्राणीमत्रको सुख निरक्षरी नहीं थी वह बहुत ही स्पष्ट शब्दोवाली और पहुंचानेवाली की और बतलाया कि मनुष्य सामाजिक प्रत्येक प्राणीके अन्तस्तनको स्पर्श करनेवाली होती थी। प्राणी है, समाज विकाशको भोर संलग्न है । निरन्तर सुख