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________________ ४१२ अनेकान्त [ वर्ष ८ इस घेरेमें घिरे हैं ७८८ दिगम्बर मुनि । अपना हैं तो अवश्य ही इमसे मुंह न मोड़ेंगे। यदि वे प्राणान्त सन्निकट जान जो साधनारत होकर आत्मा- तपस्याक लोभसे ऐसा नहीं करते तो वे साधु नहीं को परमात्मामें परिणत करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। पर साधुवेशको कङ्कित करने वाले महास्वार्थी हैं। इसे नरमेध यज्ञके नामसे प्रख्यात किया जारहा है। मुझे विश्वास है विष्णुकुमार ऐसे नहीं हैं" प्राचार्य "मातसौ मुनियोंका करुण वध !" श्राचार्यकी श्रात्मा चुप होगये । कराह उठी। स्वयं उच्चरित दो शब्दोंमें उनकी इस विश्वस्त क्षुल्लक पुष्पदन्त चर आचार्यको मस्तक पीडाको प्रगट किया वे चीख उठे 'हा ! कष्ट !' झुका गगनमार्गमे चल दिये । आकम्मिक और करुणाई स्वरसे कहे गये इन आप न भूलें होंगे कि मुनिवधका प्रयत्न करते दो शब्दोंने ही अर्धसुप्त क्षुल्लक पुष्पदन्तको चोंका हुए चारों मन्त्री वनदेवता द्वारा कील दिये गये थे। दिया । आश्चयकी सीमा न रही उनके । आचार्य प्रातः होते ही नगरकी जनताने उन्हें उसी अवस्था में प्राणान्त तक भी रात्रिभाषण नहीं करते । "अवश्य देखा और धिक्कारा । राजा तो उन्हें प्राणदण्ड देने फाई अमाधारण कारण है" सोचते हुए वे आचार्यके को तैयार होगया था पर प्राचायने उन्हें क्षमा पास दोड़े आये । “देव यह कैमा कष्ट है जिसने करा दिया । आपको इतनी पीड़ा पहुँचाई ?" मुनियोंके चरणों में गिरकर राजाने नगरीकी क्षुल्लकके प्रश्नके उत्तरमं आचायन मारी कथा ओरसं क्षमा माँगी। आचायन ममझाया 'राजन यह सुना दी । क्षुल्लककी आँखोंमें आँसू आगय, वे अातुर तो होनहार थी होगई । होनी होकर ही रहेगी हो उटं कुछ कर मकनेको । “देव कोई उपाय है अनहोनी होगी नहीं।' आचार्यके शीतल अमृततुल्य इसके निवारणका" उन्होंने प्रार्थना की। आचार्यकं उपदेशसे राजाको शान्ति मिली, उसकी आत्मग्लानि नेत्र दो क्षणके लिये मुंद गये, वे ध्यानस्थ बैठ गये। दूर होगई । हर्पकी लाली उनके मुग्वपर प्रस्फुटित होगई, नगर्गनकामिन मन्त्रीगण अवन्तीसे हस्तिनापुर बोले "है।" पहुँच । अपने चातुर्य और पाण्डित्यके बलपर उन्होंने तुल्लककी आतुरता बढ़ रही थी बोले “श्राज्ञा वहाँके राजा पद्मकं अव्यवस्थित राजकार्यको व्यवस्थित दीजिय देव ! कैसे सातमौ मुनियोंक. प्राण बचाय कर, शत्रुओंका दमनकर उसका विश्वास प्राप्त कर जा मकत हैं ?" लिया। व म.त्री तो बना ही दिए गए माथ ही साथ "विष्णुकुमार यागी समर्थ है" आचायने प्रशान्त राजान उन्हें यथेच्छित वस्तु प्राप्त कर मकने की घोषणा म्वरमें उत्तर दिया। भी की थी। मन्त्रियांने यह वचन-दान उपयुक्त अवसर "दव ! कस" क्षुल्लकन प्रश्न किय।। "उन्ह विक्रिया के लिए रख छोड़ा था। पूर्व भुनिमंघक हस्तिनापुरम शक्ति प्राप्त हे" आचायन उत्तर दिया। आ पहुँचनपर मन्त्रियांका प्रतिशाध-ज्वाला पुन: __ "पर वे तो दीक्षित हैं, इस रात्रिमें क्या कर प्रज्वलित हो उठी । बदला लेनेका उपयुक्त अवसर सकते हैं" क्षुल्लकन निराशा दिखाई। और माधना सलभ देख उन्होंने राजासे सात दिनका ___ "वं सब कर सकते हैं, मातसौ मुनियोंकी रक्षा राज माँगकर नरमेध यज्ञके नाम पर मुनियोंको एक मुनिके चरित्रसं लाखगुनी आवश्यक है। उनकी जीवित जला डालनेकी योजना बनाई। राजा इम करुण दशाका स्मरण आते ही जब मैं एक विशाल दुरभिमधिसे सर्वथा अनजान था, प्रसन्नतापूर्वक मङ्घका प्राचार्य करणाद्र हा नियमच्युत हो सकता हूँ उसने मन्त्रियोंकी इच्छानुसार उन्हें मात दिनके तो उनकी रक्षामें ममर्थ योगी विष्णुकुमार अपनी राज्याधिकार सौंप दिए । मन्त्रियोंने शासनके बलपर तपस्याकी बलि नहीं दे सकते। यदि व सच्च योगी अपनी योजनाको कार्यान्वित कर दिया। सवत्र
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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