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किरण १०-११ ]
रक्षाबन्धनका प्रारम्भ
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त्राहि-त्राहि मच गई । मुनियों के इस असह्य उपसर्ग विष्णुकुमार अपनी ही पुरीमें, अपने भाईके को देख मनुष्य तो क्या पशु भी विकल हो रहे थे। राज्यकालमें मुनियोंके इस महान उपसर्गसे पीड़ित श्रवण नक्षत्र उसी दृश्यको देख तड़प उठा था। हो उठे ! उनकी आँखोंसे धारा बह चली ! आजतक
के इतिहासमें इस पुण्यनगरीमें मुनियोंके विरुद्ध "योगिश्रेष्ठ ! मुनियोंका कष्ट निवारण कीजिये" ऐसा उत्पात कभी नहीं हुआ। उन्होंने देखा जनता शिलासमान निश्चल योगी विष्णुकुमारके सम्मुख मुनियोंके उपसर्गसे त्रस्त है, वचनबद्ध राजा अपनेको क्षुल्लक पुष्पदन्तने दीन पुकार की। योगीकी आँखें असमर्थ मान महलोंमें छिपा है और दुष्ट बलि आश्चर्यसे खुल गई । "रक्षा महायोगिन !' क्षुल्लकने अनुकूल अवसर पा अपने विरोधका बदला ले दुहराया । "कैसी रक्षा बन्धु ! किसकी रक्षा ?" रहा है। योगीने सरलतासे प्रश्न किया। उत्तरमें क्षुल्लकने क्षण-क्षण युग-सा बीन रहा है। योगी विष्णुसारी कथा उन्हें सुना दी।
कुमार एक क्षण भी न ठहर सके। झट वे बौने "पर मैं क्या कर सकता हूँ,” अपनेको असमर्थ
ब्राह्मणका रूप धारणकर दानशालाके द्वारपर जान विष्णुकुमार दुःखी हुए।
उपस्थित हुए। वेदमन्त्रों और स्वस्तिवचनोंका वे "आप विक्रियाशक्ति सम्पन्न हैं, हे योगिवर !"
उच्चारण कर रहे थे, गम्भीर पाण्डित्यका प्रदर्शन
उनके दीप्त चेहरेसे हो रहा था । बलि इम क्षुल्लकने अचकचाते हुए निवेदन किया।
असाधारण व्यक्तिसे प्रभावित हुए बिना न रह ___ विक्रियाशक्ति ?” विष्णुकुमार चौंक उठे । उन्हें सका । झट उठ खड़ा हुआ । “महाराज श्राज्ञा पता भी न था कि यह महाऋद्धि उन्हें सिद्ध होगई दीजिए" बलिने प्रणामपूर्वक प्रार्थना की । अपने है । और मच भी तो है दिगम्बर मुनि सांसारिक कार्यको इतनी आसानी सम्पन्न होते हुए देख ऋद्धि और विभवके लिए अपने शरीरको नहीं ब्राह्मण अति हर्षित हुआ, किन्तु अपनी उत्सुकताको तपाते। उन्हें तो आत्म-मिद्धि चाहिए। वही एक यथासाध्य-कृत्रिम गंभीरता और उपेक्षामें छिपाते अभिलाषा है, वहीं एक लक्ष्य है। शक्तिकी परीक्षा हुए बोला-“एक छोटी-सी कुटियाके लिए तीन पैर कर विश्वस्त योगी प्रसन्न हो आधी रातको मुनियोंकी पृथ्वी"। बलि अचम्भमें डूब गया। उसकी दानरक्षाके लिए चल पड़े।
शालामें आजतक किमीन इतनी अल्प याचना नहीं
की । बलिने सोचा, याचक निर्लोभ तपस्वी है। वह अब हम राजधानी हस्तिनापुर चलते हैं। जहाँ मुग्ध हो गया, हाथ बाँध बोला-"महाराज और नरमेध यज्ञ हो रहा है, बड़े-बड़े पण्डित और कुछ माँगिए मैं सब दूंगा।" ब्राह्मणकी भौंहें तन ब्राह्मण एकत्र हैं। वेद-पाठ हो रहा है, मन्त्रों और गई, क्रोधमुद्रा धारण करली, वह तीक्ष्ण-स्वरमें स्वाहाकी ध्वनिसे आकाश गूंज उठा है । यज्ञशालाकं बोला-“बलि ! तुझे अपने राज्य और विभवका द्वारपर ही दानशाला है, राजा बलि स्वयं अपने घमण्ड है तू मुझे साधारण लोभी समझता है। हाथों याचकोंको यथेच्छित लुटा रहा है। इच्छाओं- मुझे नहीं चाहिए तेरा दान" पैर फट फटाते ब्राह्मण का अन्त नहीं, कोई रुपए माँगता है तो कोई मणि- वहाँसे चल दिया । राजा भयसे भीत हो गया, ऐसा मक्ता । किसीको हाथी-घोडे प्रिय हैं तो अन्यको असाधारण ब्राह्मण कहीं श्राप दे दे तो उसका बड़ी-बड़ी जागीरें । बलि हर एककी इच्छापूति मस्तिष्क त्रस्त हो उठा। नंगे पैरों ही ब्राह्मणके पीछे करता है आजतक कोई याचक असन्तुष्ट नहीं दौड़ा, चरणोंमें गिर क्षमा-याचना करने लगा, हुआ। सबने अपनी इच्छानुसार पाया।
क्षमा कीजिए महाराज ! मैं सर्वथा तैयार हूँ।'