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________________ ४१४ अनेकान्त [ वर्ष ८ ब्राह्मणका बनावटी क्रोध धीरे-धीरे शान्त हुआ। रख ही तो दिया अपना पहाड़सा तीसरा पैर बलिकी "मैं स्वयं ही नाइँ गा' ब्राह्मणने याचनामें परिवर्धन असहाय पीठपर । कराह उठा बलि, चरमरा गई किया । बलि स्वयं परेशान था, ऐसे योग्य ब्राह्मणको उसकी पार्थिव हड़ियाँ । पृथ्वी काँप उठी, आकाश वह कुछ विशिष्ट देना चाहता था, पर यह ब्राह्मण भी डोलने लगा, वायु स्थिर होगई । चारों ओरसे ऐसा विचित्र कि कुछ लेनेका नाम ही नहीं लेता, 'दया-दया, रक्षा-रक्षा' की पुकारें आने लगीं। हाथ तीन पैर पृथ्वी और वह भी इन छोटे पैरों द्वारा बाँध लोग प्रार्थना करने लगे योगीसे । योगी आखिर नापी जाए। पर क्या करे वह विवश था, कहीं योगी ही था, उसका क्रोध क्षणभरमें ही शान्त होगया। ब्राह्मण फिर विमुख न हो जाए। पर "आप हर उसकी आँखें करुणासे आर्द्र होगई, शीघ्र ही अपनी प्रकार समर्थ हैं महाराज" कह गङ्गाजलसे उसने माया समेट कर अपने सच्चे रूपमें उपस्थित होकर संकल्प कर ही तो दिया। बलिको क्षमा किया। उपस्थित जनताने धन्य-धन्य और संकल्प हुआ नहीं कि वह बौना शरीर अमं- जय-जयके नारे लगाये । उपकारग्रस्त बलि भी योगी भावित रूपसे बढ़ने लगा और इतना बढ़ा कि के चरणों में गिर फूट फूट कर रोने लगा। उसका सिर बादलोंसे टकराने लगा । उपस्थित यज्ञका तो कुछ मत पूछिये । उसका तो नामो भयाक्रान्त होगय, बालका आख फिर निशान भी नहीं रह गया था। योगी विष्णकुमारके गई, वह चकित हो चित्र-लिखितसा रह गया ! नेतृत्वमें मुनियोंकी सुश्रुषा होने लगी । जनताकी मृर्छित होते-होते वह धीर किसी प्रकार सँभल गया। आन्तरिक पुकारें और सेवासे उन्हें स्वास्थ्य भीड़ यहाँसे वहाँ दौड़ने लगी, यज्ञकार्य रुक गया। लाभ हुआ। महाकाय अपन कायम व्यस्त था, उसने अपना पहिला पैर उठाकर मेरुपर रखा और दूसरेसे नगरीकी सारी जनता दसरे दिन वनमें एकत्र मनुष्यलोककी सीमाको नाप लिया अब तीसरे पैरको जगह कहाँ ! बलिके राज्यकी तो बात ही नहीं सारा हुइ हुई। योगी विष्णुकुमारका अभिनन्दन किया गया। योगाने भी अपनी इस परम तपस्याके अनन्तर पुनः मनुष्यलोक ही नप चुका था। "बोल, अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार तीसरे पैरकी भूमिका प्रबन्ध करो" महाकाय आचार्य अकम्पनसे मुनिकी दोक्षा ली । इस शुभ ने महागजना की। अवसरपर अकम्पनका अमृततुल्य उपदेश हुआ । बलिको कुछ सूझता ही न था कि मैं क्या उन्होंने योगो विष्णुकुमारकी हृदयमे प्रशंसा की । उसे यह सब स्वप्न-जैसा प्रतिभासित होता था। हरएकका आदेश दिया कि वे धर्म और समाजकी महाकायकी महागर्जनासे उसकी चेतना सचेत हुई। विपत्ति निवारणार्थ अपने वैयक्तिक स्वार्थोंको उसका धैर्य और शौर्य एक साथ ही उद्दीप्त तिलाञ्जलि दें । उनके अन्तिम शब्द थे 'सच्चा हो उठे, दृढ़तासे उसने जवाब दिया “मेरा शरीर वात्सल्य स्वार्थकी अपेक्षा नहीं करता, माता अपने शेष है" बलि वचनका पक्का था, 'प्राण जायँ पर पुत्रकी रक्षार्थ अपनी शक्ति या प्राणोंका मोह वचन न जाहीं' उसका सिद्धान्त था। कहनेके साथ नहीं करती ।' ही उसने अपने शरीरको पृथ्वीपर बिछा दिया। वात्सल्य-दीक्षाके साक्षी स्वरूप जनसमूहने अपनी योगीका क्रोध अन्तिम सीमा तक पहुँच चुका था। कलाईमें एक बन्धन-सूत्र बाँधा जो आगे रक्षाबन्धन बलिकी हठने उसे और भी उद्दीप्त कर दिया उसने कहलाया ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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