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________________ अनेकान्त [वर्ष ८ - पन्थमें रात दिन रत रहनेवाले श्रावकों पर दूपित मिश्रित खिचड़ी भाषामें लिखे गये हैं और बहुत मनोवृत्तिको लिये हुए वचन-वाणों का प्रहार करते कुछ अशुद्ध पाये जाते हैं इनके ऊपर "हृदे(दय)बोध थे-उन्हें 'निष्ठुर' कहते थे, 'काठिया' (धर्मकी हानि ग्रंथ कथनीयः" लिखा है । संभव है 'हदयबोध' करनेवाले) बतलाते थे और 'गुरु विवेकसे शून्य' नामका कोई और ग्रंथ हो, जिसे वास्तवमें 'हदयवेध' बतलाते थे। साथ ही उनके जप-तप और शील- कहना चाहिये, और वह ऐसे ही दूपित मनोवृत्ति संयमादिरूप धर्माचरणको निष्फल ठहराते थे और वाले पद्योंसे भरा हो और ये पद्य ( जिनमें से केटका यहाँ तक कहनेकी धृष्टता करते थे कि तेरहपंथी पाठ अपना है) उसीके अंश हो :वनिकपुत्रकी उत्पत्तिपर देवतागण रौरव-नरकका "सत उत्पत्यं (सतोत्पत्ती) जगत्सव हर्षमानं प्रजायतेः(ते) अथवा घोर दुःखका अनुभव करते हैं, जब कि तेरापंथी वन्क(वनिक) पुत्रं (त्रे) रोरवं देवतागणाः। पुत्रकी उत्पत्तिपर सारा जगत हर्प मनाता है। इसके त्रिदश१३पंथरतौ (ता) निशिवासराः। सिवाय वे पतितात्मा उन धर्मप्राण एवं शील-संय- गुरुविवेक न जानति निष्ठुराः मादिसे विभूपित स्त्रियोंको, जो धमके विषय में जप-तपे कुरुते बह निफलां (ला) अपने पुरुषोंका पूरा अनुसरण करती थीं और नित्य .कमपि ये व (?) जना सम काठया ॥२॥ मन्दिरजीमें जाती थीं किन्तु भट्टारक गुरुके मुखसे पुर्प(रूप) रीत लपै निजकामिनी शास्त्र नहीं सुनती थीं, 'वेश्या' बतलाते थे !-उनपर प्रतिदिन चलिजात जी (जि) नालये। व्यंग्य कसते थे कि वे प्रतिदिन जिनालय (जैन गुरुमुखं नहि धर्मकथा श्रुणं मंदिर ) को इस तरह चली जाती हैं जिस तरह कि नृपगृहे जिम जाति वरांगना ॥३॥" राजाके घर वारांगना (रण्डी) जाती है !! इन विपबुझे वाग बाणोंसे जिनका हदय व्यथित हालमें इस भट्टारकीय मनोवृत्तिके परिचायक एवं विचलित नहीं हुआ और जो बराबर अपने तीन पद्य मुझे एक गुटकेपरसे उपलब्ध हुए हैं, जो लक्ष्यकी ओर अग्रसर होते रहे वे स्त्रीपुरुष धन्य हैं। गत भादों मासमें श्री वैद्य कन्हैयालालजी कानपुरक और यह सब उन्हींकी तपस्या, एकनिष्ठा एवं कर्तपास मझे देखनेको मिला था और जिसे सिवनीका व्य परायणताका फल है, जो पिछले जमाने में भी बतलाया गया है। यह गुटका २०० वपसे ऊपरका धर्मका कुछ प्रकाश फैल सका और विश्वको जैनधर्म लिखा हुआ है। इसमें संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं एवं तत्वज्ञानविषयक साहित्यका ठीक परिचय मिल के अनेक वैद्यक, ज्योतिप, निमित्तशास्त्र और जंत्र- सका । अन्यथा, उस भट्टारकीय अन्धकारके प्रसार मंत्र-तंत्रादि विषयक ग्रंथ तथा पाठ हैं। अस्तु; उक्त में सब कुछ विलीन हो जाता। तोनों पच नीचे दिये जाते हैं, जो संस्कृत-हिन्दी सम्पादक
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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