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________________ किरण ७-८ भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना ग्राम, जम्बूखण्ड गण, और आर्यनन्दि आचार्यके विषय में विशेष अनुसन्धानकी जरूरत है, उससे इतिहास-विपयपर कितना ही नवीन प्रकाश पड़ेगा। अतः विद्वानोंको इस विषय में अवश्य प्रयत्न करना चाहिये और उसके नतीजेसे अनेकान्तको सूचित करके अनुगृहीत करना चाहिये। -सम्पादक भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना स समय भट्टारकोंका स्वेच्छाचार अनुवादित करके उनपर टीकाएं लिखकर उन्हें MAM बहुत बढ़ गया था-उनके आचार सवत्र प्रचारित करनेका बीडा उठाया गया था, विचार शास्त्रमर्यादाका उल्लंघन जिससे गृहस्थजन धम एवं तत्त्वज्ञानके विषयको IR करके यथेच्छ रूप धारण कर रहे स्वयं समझकर ठीक आचरण करें और उसके लिये NAYAK और उनकी निरंकुश, दपित गृहस्थों से गये बीते मठाधीश और महापरिग्रही ..' एवं अवांछनीय प्रवृत्तियोंसे जैन भट्टारकों के मुखापेक्षी न रहें, इसका नतीजा बड़ा सुन्दर जनता कराह उठी थी और बहुत कुछ कष्ट तथा निकला---गृहस्थों में विवेक जागृत हो उठा, धर्मका पोड़ाका अनुभव करती करती ऊब गई थी, उस जोश फैल गया, गृहस्थ विद्वानों द्वारा शास्त्रसभाएं समय कुछ विवेकी महान पुरुषोंने भट्टारकोंके चंगुल होने लगीं, भट्टारको की शास्त्रसभाएं फीकी पड़ गई, से अपना पिण्ड छुड़ाने, भविष्य में उनकी कुत्सित स्वतंत्र पाठशालाओं द्वारा च्चों की धार्मिक शिक्षा प्रवृत्तियोंका शिकार न बनने, उनके द्वारा किये जाने का प्रारम्भ हुआ और जैनमन्दिरों में सर्वत्र शास्त्रों वाले नित्यके तिरस्कारों-अपमानों तथा अनुचित के संग्रह, स्वाध्याय तथा नित्यवाचनकी परिपाटी कर-विधानोंसे बचने और शास्त्रविहित प्राचीन मार्ग चली। और इन सबके फलस्वरूप श्रावक जन धर्मसे धर्मका ठीक अनुष्ठान अथवा आचरण करनेके कम में पहलेसे अधिक सावधान होगये—वे नित्य लिये दिगम्बर तेरहपन्थ सम्प्रदायको जन्म दिया स्वाध्याय, देवदर्शन, शास्त्रश्रवण, शील-संयमके था। और इस तरह साहसके साथ भट्टारकीय जूए पालन तथा जप-तपके अनुष्ठानमें पूरी दिलचस्पी को अपनी गदनोंपरसे उतार फेंका था तथा धर्म के लेने लगे और शास्त्रों को लिखा लिखा कर मन्दिरों मामलेमें भट्टारकोंपर निर्भर न रहकर-उन्हें ठीक में विराजमान किया जाने लगा । इन सब बातों में अथमें गुरु न मानकर-विवेकपूर्वक स्वावलम्बनके स्त्रियों ने पुरुषों का पूरा साथ दिया और अधिक प्रशस्त मार्गको अपनाया था। इसके लिये भट्टारकों तत्परतासे काम किया, जिससे तेरह पन्थको उत्तरोको शास्त्रसभामें जाना, उनसे धर्मकी व्यवस्था लेना तर सफलताकी प्राप्ति हुई और वह मूलजैनाम्नाय आदि कार्य बन्द किये गये थे । साथ ही संस्कृत- का संरक्षक बना । यह सब देखकर धर्मासनसे च्युत प्राकृतके मूल धर्मग्रंथोंको हिन्दी आदि भापाओं में हुए भट्टारक लोग बहुत कुढ़ते थे और उन तेरह
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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