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किरण ८-९]
दक्षिण भारतके राजवंशोंमें जैनधर्मका प्रभाव
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संरक्षकत्वमें, विशेषकर आचार्य सिंहनन्दिके प्रयत्नोंके जैनबुद्धिकी परम कुशल एवं महान सृष्टि होयसल फलस्वरूप, ईस्वी सन्की २री शताब्दीमें हुई थी। राज्य थी (१०वीं शत० ई०)। यहाँ यह स्पष्ट कर अनेक विभिन्न शिलालेखों परसे इस चिरस्मरणीय देना भी असङ्गत न होगा कि जैन गुरुओंने घटनाका विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। गंगनरेश राजनीतिज्ञोंकी राज्य-संस्थापनादिमें जो सहायताअविनीत कोंगणीवर्म (५वीं शत० ई०) जैन भक्त था की वह इस उद्देश्यसे नहीं की कि उनके और उसका उत्तराधिकारी दुर्विनीत तो उच्चकोटिका धर्मको अथवा उन्हें राज्याश्रय या राज्यकी सहायता जिनधर्मी था, उसके साथ महत्वपूर्ण साहित्यिक प्राप्त हो जायगी । दक्षिण देशके विभिन्न जैनधार्मिक कृतियोंका भी सम्बन्ध है । आचार्य देवनन्दि केन्द्रोंसे, विशेषतः कर्णाटक प्रान्तमें, उनमेंसे पूज्यपाद उसके गुरु थे। उत्तरकालीन गंगनरेशीम कितने ही ऐसे अत्यन्त आश्चयजनक प्रतिभाशाली, भी महाराज मारसिंह जैसे कितने ही जैनधर्मके असाधारण-बद्धि-सम्पन्न महाप्राण विद्वानोंका संबंध परमभक्त राजा हुए हैं। उनकी पुण्य-स्मृति अनेकों था जिन्हें जन्म देनेका सौभाग्य भारतवर्षको कभी मन्दिरों, वसतिकाओं आदिके रूपमें आज भी भी हुआ है। जैनधर्मने होयसल वंशके आश्रयमें अवस्थित है।
भी भारतकी स्थापत्य एवं कला-सबंधी श्री शोभाकी गंग राज्यशक्तिके पतनारंभसे बहुत पूर्व ही विशेष रूपसे अत्यधिक वृद्धि की है । होयसल वंशजैनधर्मको कदम्ब तथा राष्ट्रकूट, इन दो अन्य की स्थापना-सम्बन्धी घटनावलीका उपलब्ध विस्तृत महान राज्यवशीसे संरक्षण प्राप्त हो चुका था; और विवेचन कर्णाटकी इतिहासके विद्यार्थियोंके लिये
कि उनके दानपत्रादिकोंसे पता चलता है, इन बहुत ही उपयोगी है। वंशोंके अनेक राजागण जैनधर्मके पूर्ण पक्षपाती उपयुक्त राज्यवंशोंके अतिरिक्त, गंग एवं राट्रकूट अथात् हिमायती थे । राष्ट्रकूटकालमें सामान्यतः नरेशांक कितने ही सामन्त सरदार तथा सान्तर, सर्वत्र और विशेषकर अमोघवर्ष प्रथमके समयमें कांग्लव, चंगल्वा, सेन्द्रक आदि अभिजात वंशोंमें जैनधर्मने जिनसेन स्वामी, महावीराचार्य आदि उत्पन्न उनके प्रान्ताधिकारी जैनधर्मके अनन्य भक्त अनेकों लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों एवं साहित्य- थ । इस बातका ज
थे । इस बातका जनमाधारणपर भी अत्यन्त काराको जन्म दिया। सम्राट इन्द्र चतुर्थ जैसे राण- श्रेयस्कर प्रभाव पड़ा, और जैनधर्मको जो सब कूट नरेश सुश्रद्धालु जनोंकी भांति मल्ल
देखना-पूर्वक
ओरसे ऐसी व्यापक विशद समथना तथा सहायता मरणको प्राप्त हुए (सन् ९८२ ई० में) । चालुक्य मिली उसका भी आंशिक श्रेय इसी बातको है। जब वंशसे भी जैनधर्मको प्राचीनकालसे ही अत्यधिक कभी केन्द्रीय शक्ति निबल भी हो जाती थी तो प्रश्रय मिला । प्रसिद्ध आइहोले शिलालेख (सन् प्रान्तीय अध्यक्षोंकी सहायता और भक्तिके कारण ६५४ ई०) से स्पष्ट है कि सम्राट पुलकेशी द्वितीय उसका जैनधर्मकी वस्तुस्थितिपर कोई विशेष उक्त लेखके जैन रचयिता रवीकीतिका तथा जैन चिन्तनीय प्रभाव नहीं पड़ पाता था। इसमें भी धर्मका हृदयसे आदर करते थे। उनके वंशजोंमें भी सन्देह नहीं कि इस सदाश्रय-प्राप्तिका बहुत कुछ श्रेय जैनधर्मकी प्रवृत्ति थी। सन् ९९३ ई० में पश्चिमी उन प्रख्यात विश्रुत जैन गुरुओंको है जिनका अब चालुक्य सम्राट तैलपदेव आहवमल्लने जैनधर्मा- पर्याप्त विस्तृत इतिवृत ज्ञात होता जारहा है। नुयायी कन्नड महाकवि रनको 'कविचक्रवर्ती' उस युगक कार्यचेता विशिष्ट जैन पुरुषोंके कार्यों की उपाधि प्रदान करके समादृत किया था। से जैनधर्मकी वह प्रेरक जीवनी शक्ति, जो कि उसके इस युगमें अनेक विद्वान जैनगुरु ख्यातिको अन्दर निहित रही है और जिसका उसने प्राप्त हुए हैं। गंगवंशकी स्थापनाके पश्चात्- कर्णाटककी मूमिमें तथा उसके च₹ओर प्रकाश किया