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________________ ३५८ अनेकान्त [ वर्ष ८ था, स्पष्टतया प्रकट हो जाती है । जैनधर्मको अमूल्य वितरण किया ! माललदेवी, पम्पादेवी, पश्चाद्वर्ती सन्ततिद्वारा प्रदत्त श्रेय विशेषतः इस जक्कनब्बे, सान्तलदेवी आदि कितनी ही उक्त युगीन बातका है कि इसने देशको ऐसे व्यक्ति प्रदान किये अन्य जैन देवियोंके कार्यकलाप भी अत्यधिक कि जिन्होंने इस धर्मको एक कार्यकर दर्शनके रूपमें प्रभावपूर्ण एवं रोचक हैं। परिणत कर दिया और उनकी वह अहिंसा जो उनके उस कालमें जैनधर्म केवल केन्द्रीय तथा सामन्ती महान धर्मका मूलमंत्र थी उनके देशकी स्वतन्त्रता राजवंशोंमें सीमित अभिजातमान्य धर्मके रूपमें ही एवं उद्धारमें बाये बाधक होनेके एक ऐसा सहायक नहीं फला फूला, किन्तु जनसाधारण भी जिनधर्मकी कारण सिद्ध हुई किजिसके बिना धार्मिक अथवाराज- परिधिमें बहुलताके साथ आये और रहे । जैन नैतिक किसी भी क्षेत्रमें किसी प्रकारकी भी स्वाधीनता नेताओंने मध्य श्रेणीके सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग सम्भव नहीं हो सकती थी। वीरमार्तण्ड चामुंडराय वीर बणजिग तथा अन्य व्यापार प्रधान जातियोंकी तथा महासेनापति गंगगजके युद्धक्षेत्र सम्बन्धी भी निष्ठा प्राप्त करके अपने दार्शनिक उपदेशोंका वीरतापूर्ण कार्योंके सूक्ष्म विवेचनके साथ ही साथ व्यवहारिक पहलू भी भले प्रकार चरितार्थ कर दिया, उनके परमनिष्ठासम्पन्न धार्मिक कृत्योंका विस्तृत कारण कि इन लोगोंकी आर्थिक सहायता अनेकान्तविवरण अतिशय रोमाञ्चकारी है, और विशेषतः मतके हितसाधनमें अनुमानातीत महत्वकी थी । इस कारणसे भी कि उक्त दोनों ही धर्म-कर्म-शूगेका इसके अतिरिक्त, उन्होंने सर्वसाधारणकी निष्ठा एवं सम्बन्ध श्रवण बेलगोलम्थ विध्यगिरिकी प्रात:- भक्ति प्राप्त करनेके लिये जो सर्वाधिक व्यावहारिक स्मरणीय उस अद्भुत विशाल मृति तथा उसके साधन अपनाया वह उनकी आहार, औषध, अभय चारों ओर निर्मित विविध भव्य भवनादिकांस रहा और विद्यारूप चतुर्विध दानप्रणालीसे सम्बन्धित है। आदर्श वीर शान्तिनाथ, बप्प, एच, विटिमय्य, है, क्योंकि अखिल मानव समाजकी प्राथमिक मूल हल्ल, बूचिराज आदि अन्य सुभट सेनानी भी असभ्य आवश्यकताएँ इन चारोंमें ही निहित हैं। धनिकवगरूक्ष योद्धा-मात्र नहीं थे वरन वे सब परम सुसंस्कृत पर इन चार प्रकारके दान में प्रवृत्त होते रहने के व्यक्ति थे और अवश्य ही उनका समकालीन समाज लिये जोर देते रहनेके परिणामस्वरूप जनसाधारणउनकी ओर सभिमान दृष्टि से देखता रहा होगा, का जैन धर्मके प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक एवं उनपर गर्व करता होगा। ___अनिवार्य था । वस्तुतः ९वीं से १४वीं शताब्दी तक कितनी ही प्रख्यात जैन देवियांने धर्म रक्षा एवं जैनधर्म उनमें दूतगतिसे प्रचारको प्राप्त हुआ । प्रभावनाके कार्यों में नेतृत्व किया। उन्होंन मन्दिर अनगिनत उपलब्ध अभिलेखीय प्रमाण इस बातके बनवाय, देव-प्रतिमायें निर्माण कराई, धामिक पर्वो साक्षी हैं कि जैनधर्म, उसकी धार्मिक क्रियायें, और उत्सवोंका आयोजन किया, साहित्य और विधिविधान, नियमाचार इत्यादि समाजके विभिन्न कलाको प्रोत्साहन दिया, दानशालाएं स्थापित की, वर्गों द्वारा बहु आदरको प्राप्त थे। तपश्चर्या की और समाधिमरण भी किये । भारतीय कर्णाटकके भीतर और बाहिर कितने ही जैन साहित्यके इतिहासमें यह एक अद्वितीय, चिरस्मरणीय सांस्कृतिक केन्द्र थे, जिनसे कि जैनधर्मका तेजः एवं विशेष ध्यान देने योग्य घटना है कि सेनापति प्रकाश चहुँ ओर फैल रहा था। इनमेंसे कुछ अब मल्लपकी पुत्री और वीर नागदेवकी भाया विदपी तक भी अवस्थित है, किन्तु जो जैन केन्द्र कालान्तरअत्तिमम्बन महाकवि पोन्नकृत शान्तिपुराणकी एक में अजैनोंके हाथों पड़ गये उनमें केवल खण्डित सहन हस्तलिखित प्रतियाँ स्वयं अपने व्ययस तैयार जैन मूर्तियाँ तथा इधर उधर बिखरे पड़े भग्न करवाई और उन्हें उस १८वीं शताब्दी ईस्वी में स्थापत्यादिके प्रस्तर खण्ड ही दशमें एक समय जैन
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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