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अनेकान्त
[वर्ष ८
माँस समान कहनेका दुराग्रह करते हैं तो करें, इस तरह वे एकादशी आदि पर्वके दिनों में माँसको अशुद्ध समझते तो कोई भी मनुष्य मनुष्यभती कहलानेके अपराधसे खाली हुए इसके आहारका त्याग कर देते हैं। जब बौद्ध धर्मियोंके न बच सकेगा, क्योंकि सभी अपने बचपनके जमानेमें अलावा सभी माँस खाने वाले विधर्मी लोग माँसाहारको माँकी छातीका दूध पीनेवाले होते हैं।
अशुद्ध और अनुक्र समझते हैं तो यह बहुत ही आश्चर्य की बौद्धधक सम्बनमें आपने जो अनेक बातें बात है कि आप लोग मांसको ग्राह्य वस्तु कहते हैं। उपर कही हैं, उनमें से यह बात तो कदापि मानने योग्य
-वैर ! श्राप इस विषयमें हमारे खिलाफ नहीं हो सकती कि संसारके सभी माननीय विज्ञ पुरुषों कुछ भी कहें मगर इतनी बात तो आप जरूर स्वीकार ने माँसको त्याज्य ठहराया है। जहाँ तक सर्वसाधारणका करेंगे ही कि माँसाहारी होते हुये भी किसीके प्राणघात सवाल है, सभी सभ्यजन शराब और अन्य मादक पदार्थों करना या कराना हमारा अभिप्राय नहीं है और इस की निन्दा करते चले आये हैं परन्तु मदिराके समान, मांस अभिप्रायके अभावमें, माँस-प्राप्तिके लिये जो कुछ भी की सब जगह निन्दा होना सिद्ध नहीं है। इससे प्रमाणित पशुधात होता है उसके लिये हमारी कोई भी नैतिक होता है कि यदि माँस वास्तवमें निन्दनीय होता, तो मदिरा जिम्मेवारी नहीं है। के समान सारा संसार बिना किसी मतभेदके उसका भी नीलकेशी-खब ! यदि भापके कहे अनुसार निन्दक होता!
अभिप्रायवादका अर्थ लिया जाय, तो स्वयं मारनेवाला भी नीलकेशी-आपने माँसाहारको निष्पाप कार्य इस प्रकारके अभिप्राय वाला सिद्ध न हो सकेगा। क्योंकि सिद्ध करने के लिये जो सर्वसाधारण मतका सहारा लेनेकी मारने वाला कभी भी मारनेके अभिप्रायसे नहीं मारता, कोशिश की है. यह प्रयास भी श्रापका निष्फल है: क्योंकि वह तो केवल धनके अभिप्रायसे ही मारता है। उसका मोस, मदिरा, मैथुन आदि भोग-उपभोगकी बातों में मनुष्य मुख्य उद्देश्य धन बनाना है. मारना तो धन सिद्धिके कभी भी एकमत अथवा समान-व्यवहारी नहीं रहा है। लिये एक साधन मात्र ही है। इस तरह यदि आपके इसलिये इन बातोंके सत्य और तथ्यका निर्णय करनेके मान्यतापर अमल किया जाये तो मारने वाला भी हत्याके लिये सर्वसाधारण मतका सहारा लेना निरर्थक है । दूर अपराधसे मुक्र होजायेगा। जानेकी जरूरत नहीं, मदिरापानको ही ले लीजिये । क्या बौद्ध-अच्छा श्रापका प्राशय यह है कि, च कि सभी युगोंमें सभी लोगोंने इसकी निन्दा की है? नहीं! माँसाहार परम्परा रूपसे पशुधातका कारण है, इस वास्ते इस सम्बन्धमें हमें प्राचीन वैदिक कालके व्यसनोंकी आलो- माँसाहारी पशुधातका दोषी है, परन्तु श्रापकी यह धारणा चना करनेकी जरूरत नहीं स्वयं बौद्धधर्मी-खासकर सचाई और व्यवहारके विरूद्ध है। व्यवहारमें हम महायान और मन्त्रयान सम्प्रदायोंके लोग शराबका खूब हमेशा देखते हैं कि केवल मृत्युका कारण होजानेसे कोई प्रयोग करते हैं। इनके अलावा बहुतसे अन्य धर्मवाले भी मनुष्य हत्यारा नहीं कहलाता । इस सम्बन्धमें बहुतसे शराबको आजादीसे पीते हैं । इन हालातके रहते हुए, उदाहरण पेश किये जासकते हैं। किसी शत्रु द्वारा घायल भला श्राप कैसे कह सकते हैं कि शराब लोक-निन्द्य वस्तु किये हये मनुष्यके शरीरसे तीर निकालते समय संभव है ? मगर इसके मुकाबलेमें मांसभक्षणकी बात सर्वथा है कि आप उसकी मृत्युके कारण होजायें अथवा किसी भिन्न प्रकार की है। सिवाय बौद्धधर्मियोंके, जो तर्कद्वारा बचके गलेमेंसे अटकी हुई कौडीको निकालनेकी कोशिशमें मांसभक्षणका समर्थन करते हैं; सभी मांसभक्षक चाहे उन उसकी माँ उसकी मृत्युका कारण बन जाये, इसी तरह की यह लत कितनी ही पुरानी क्यों न हो, कभी इसकी किसी रोगीका आप्रेशन करते हुये चिकित्सक-ढाक्टर उसकी प्रशंसा नहीं करते और न इसे अच्छी चीज़ समझते हैं। यह मृत्युका कारण होजाये; परन्तु यह बात निश्चित है कि कोई भी मात स्वयं उनके प्रचलित व्यवहार से ही जाहिर है क्योंकि उपयुक व्यक्रियाको मृत्युका अपराधी नहीं ठहरायेगा।