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________________ ३३८ अनेकान्त [ वर्ष ८ मुनि (साधु और उपाध्याय परमेष्ठी) का ही ग्रहण तीसरी यह कि यदि सैद्धान्तिक भूल है तो उसके करना प्राप्तमीमांसाकारको इष्ट है । जैसा कि बतलानेपर वह क्या हीन प्रवृत्ति है ? विद्यानन्दके अष्टसहस्रीगत व्याख्यानसे स्पष्ट है। (१) प्रथम बातके सम्बन्धमें मेरा कहना है कि अज्ञान स्वयं मल है. मलजनक नहीं- जब आप यह कहते हैं कि 'मैंने तो उससे मलोत्पत्ति हमने प्रो. सा. की एक सैद्धान्तिक भूल उन्हींके की बात कही है ।' तब स्पष्ट है कि आप अज्ञानको वाक्योंको उद्धृत करके बतलाई थी। उनके वे वाक्य मलोत्पत्तिका जनक या बन्धका कारण कह रहे हैं। निम्न प्रकार हैं कोई यह कहे कि अनिसे धूमोत्पत्ति होती है और 'ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानोंमें भी वीत- फिर वह कहने लगे कि हमने श्रमिको धूमका कारण रागता होते हुए भी अज्ञानकं सद्भावसे कुछ कहाँ कहा ? तो क्या उसे विक्षिप्त नहीं कहा जायगा? मलोत्पत्तिकी आशङ्का होसकती है।' इसपर हमने स्पष्ट है कि उसका वह कथन अयुक्त और विरुद्ध लिखा था कि 'परन्तु सिद्धान्तमें बिना मोहके अज्ञान- समझा जायगा । यही हमारे प्रो. सा. यहाँ को बन्धका कारण या मलोत्पत्तिका जनक नहीं कर रहे हैं । अज्ञानसे मलोत्पत्तिकी बात कहना और माना है। इसके साथ ही स्वयं प्राप्तमीमांसाकार तथा प्रज्ञानको मलोत्पत्ति जनक बतलाना एक ही बात अष्टसहस्रीकारके कथनोंसे उसका सप्रमाण समर्थन है। न्यायका साधारण अभिज्ञ भी यह जानता और किया था । अब प्रो. सा. लिखते हैं कि 'इस मानता है कि पंचम्यन्त प्रयोग हेतुपरक होता है। सिलसिलेमें पण्डितजीन मेरे सिर एक सैद्धान्तिक प्रकृतमें जब अज्ञानसे मलोत्पत्तिकी बात कही जाती भूल जबदस्ती मढ़ दी है कि मैंने अज्ञानको भी है तो स्पष्टतः पंचम्यन्त प्रयोग है। और यह बन्धका कारण बतलाया है और फिर आपने उसपर है कि मलोत्पत्ति जनक और बन्धका कारण दोनों एक लम्बा व्याख्यान भी झाड़ा है ।' आगे अपने एक हैं उनमें जरा भी भेद नहीं है। प्रो. सा. जब लेखका पूरा उद्धरण उपस्थित करके पाठकोंम इसे अज्ञानसे अपनी मलोत्पत्तिकी बातको ठीक बतलानेके देखनेकी प्रेरणा करते हुए लिग्ना है कि 'कृपया लिये यह कहते हैं कि क्योंकि स्वयं प्राप्तमीमांसाकारपाठक देखें कि मैंने यहाँ कहाँ अज्ञानको बन्धका ने उसे दोप कहा है और उस मलकी उपमा दी है कारण कहा है ? मैंने तो उससे मलोत्पत्तिकी बात आदि' तो हमें उस व्यक्तिको याद आजाती है जो कही है और वह ठीक भी है क्योंकि आप्तमीमांसा- कहता है कि पानीस पय होता है क्योंकि सभीने कारने उसे दोष कहा है और उसे मलकी उपमा दी पानीको पेय कहा है। विवाद पानीको पंय होनमें है और अकलङ्क तथा विद्यानन्द जैसे टीकाकारोंने नहीं है विवाद है पानीस पय होनेमें । अतएव उसके भी उसे आत्माका मल ही कहा है।' इसके आगे वैसे कथनको सुनकर किसे हंसी नहीं आवेगी। ठीक आपने इन आचार्यों तथा धवलाकारके कुछ अज्ञान- उस व्यक्ति जैसा कथन हमारे प्रो. सा. का है, क्यों को मल कहनेवाले वाक्योंको दिया है। साथ ही कि प्रश्न तो यह है, क्या आपने अज्ञानसे मलोत्पत्ति मुझसे अपनी भूल जाननेकी इच्छा प्रकट करते हुए कही है ? यह प्रश्न नहीं है कि अज्ञान स्वयं मल है लिखा है कि 'ऐसी हीन प्रवृत्ति एक न्यायाचार्यके क्या ? क्योंकि उसे मल होनेमें विवाद ही नहीं है योग्य नहीं । और इसलिये उसे मल सिद्ध करनेके लिये जो ___ यहाँ निम्न तीन बातें विचारणीय हैं। प्रथम तो आप्तमीमांसाकार आदिके वाक्योंको उपस्थित किया यह कि प्रो. सा. ने रक्त वक्तव्यमें क्या अज्ञानसे गया है वह सर्वथा निरर्थक है । आपको तो अज्ञानसे मलोत्पत्ति नहीं कही ? दूसरी यह कि यदि अज्ञानसे मलोत्पत्तिकी अपनी बातको साबित करने वाले मलोत्पत्ति कही है तो सैद्धान्तिक भूल क्यों नहीं हुई ? प्रमाण उपस्थित करना चाहिये था पर उन्हें उपस्थित
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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