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________________ भगवान महावीर और उनका सन्देश ( लेखक-श्री कस्तूरमा सावजी अग्रवाल जैन, बी० ए०, बी० टी० ) x - -- 9F x र्तमान रणचण्डीका नृत्य यह बीभाम और लिए आज भी समस्त संपार उनके पुनीत चरणों में अनवरत रक्तपान भौतिक विकामकी श्रद्धाञ्जलि अर्पण कर रहा है तथा करता ही रहेगा। देन है। आज संपारपर युद्धकी भीष जब कभी भव्य भारतमें आध्यात्मिक पतन हुमा, गाता अपना प्रातक जमाय हुए है। जहवादकी दुहाई दी जाने बगी, कलहाग्नि प्रज्वलित होने अाज निहत्थे नागरिकोपर, श्रमहाय लगी तथा घार विश्वके चिन्ह दृष्टिगत होने लगे, उसी कोमलानियोंगर तथा कोमन शिशुओंपर समय संसारके लिए ललामभूत विभूतियोंने अवतीर्ण होकर प्राकाशसे धड़ाधर बम वर्षा हो रही है। अपने अनुकरणीय कृयोस ऐमी पी महत्वपूर्ण शिक्षाएं एक ओर गरीब मजदूरकी रोटीका प्रश्न किमी प्रकार प्रदान की कि निविल भुवनमें अपने देशका मुग्वोज्वल कर. हल होता न देख व्याकुल हैं तो दूसरी और समृद्धिशाली मुख एवं शान्तिका माम्राज्य स्थापित कर दिया। ऐसा ही पूजीपति अपनी पैशाचिक इच्छाओं की तृप्तिमें ऐसे संलग्न __ परमादर्श-विभनियमिमे श्री भगवान महावीर थे । लगभग हैं कि उनके कारण न केवल उनकी ही किन्तु समस्त ढाई हजार वर्ष पूर्व भारतमें चतुर्दिक हिमाका साम्राज्य संमारकी नींद हराम होगई तथा समस्त पृथ्वी मिहर था। निरीह. निरपराध एवं मूक पशुश्रीको होम-कराडोंमें उठी है। म्वाहा कर, पुण्य मंचय करना ही धर्म समझा जारहा था। ऊँच नीचताके जन्मजात बन्धनोंके कारगा विशेष ध्यमियों सम्भव है कि वैज्ञानिक-उन्नति-द्वारा अटूट एवं अपीम तथा वर्णकी तूती बोल रही थी। कुरीतियां और धर्मान्धता ऐश्वर्यकी प्राप्ति हो जाय, विशाल साम्राज्यका प्राधिपाय भारतीय समाजकी जर खोखली कर रही थीं। हिंसवृत प्राप्त हो जाय, पारामकी ममम्त उत्तमोत्तम वस्तुओं का के पाथ माथ नैतिक अध:पतन भी होता जा रहा था। उपभोग मिल सके, जल, स्थल एवं वायुपर अपना शासन से समय भगवान महावीर ने अपने शुभ जम्ममे हम वारचलने लगे और भौतिक यन्त्रों द्वारा अपने सम्पूर्ण कार्य प्रमघा भारतभूमिका पवित्र किया। सुगमतर हो जाये, तो भी क्या हमारी अतृप्त तृष्णा मिट "मत महल हमें जानों फिरता तलक बरमों। सकेगी ? कदापि नहीं। वैज्ञानिक उमति जनवादका महारा (Sahara Deser) मरुस्थल है। वहां तृषित-मृगवत तब खाकके पर्देय इनमान निकलते है।" सुख एवं शान्तिका सरोवर खोजना निगपद नहीं । होश संभालने पर संसारकी विधितिने, मूक पशुश्रांकी शताब्दियों पूर्व आर्यावर्तकी सुजलाम्-सुफलाम् भूमिमें हल्याने तथा सोमारिक भोगोंकी अपारताने श्रापको बद। मुख एवं शान्तिकी तरॉ कल्लोल करती थीं, जीवनकं चोट पहुंचाई । नाम गदेले श्रापको पसन्द न श्राप, राजव्यापार सर्वथा परल थे, आजीविका सम्बन्धी प्रश्न कभी पाटको त्याग कर आपने जङ्गलकी राह ली। तलाशे हकक समस्या न बना था, यहाँके प्राचीन निवासी अपनी मादगी लिये तथा सच्चे सुस्त्र व शान्तिकी खोजमें जी-जानसे लग में मस्त थे तथा श्राध्यात्मिक विकास के कारण वे परमानन्द- गए । स्वारमानुभवकी निधिको पाकर आप मालामाल हो मय जावन-यापन करते थे । उनकी महान सेवानी और गए और इस अनमोल न जानेको लुटानेका बीड़ा उठाया। उस समयकी दिव्य विभूतियोंक कल्याणकारी सन्देशांक भगवान ने अपने जीवनका मनोहर श्रादर्श उपस्थित करते
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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