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________________ अनेकान्त [ वर्ष ८ मर गये और फसल खरीफका गह्ना बहुत सस्ता होगया- बजरिये लुट-मारके बर्बाद की गई। ३० जुलाई १८५३, शनिवार-डेढ़ घडी दिन चढे २ मन १० सर, बाजरा---३ मा २० सेर, माश उडद)-- • सर, माश उडद)-- भूकम्प हुश्रा (पृथ्वी पर हालन प्राया)। भकम्प १ मन ३. संर, रोगनतलख (नेज करवा)--२५ सेर, इसी तरहको और भी सैंकड़ों घटनाएँ-उस उस गुरु- मन १० सेर, शकर - ३६ मेर। समयके वाक्यातकी याददाश्ते--इस जंत्रीमें दर्ज की गई २६ प्रल १८५१ मंगलवार--( नोट हाशिया) हैं और उनसे कितनी ही ऐसी पुरानी बातोंका पता चलता निरख (भाव) असल रबी (भाषादी)सन् १२५८ अपनी है, जिनके जाननेका श्राज दूसरा कोई साधन नहीं है। गेहूं-२ मन २० सर, चना मटर वगैरह---३ मन १० सेर, जी-४ मन २० सेर, अदस (मसूर)--३ मन मुझे इस जंत्री परसे अपने उस 'वंशवृक्ष' के तय्यार १.मेर गोजना-३ मन ३० मेर। कराने में--खासकर उसमें पूर्वजोंके उदय-अस्त (जन्मनोट हाशिया जनवरी मन १४:--इम म. मरण) की तारीख दर्ज कराने में बड़ी मदद मिली है । मासमें गल्लेका भाव बहुत ज्यादा महँगा होगया, तमाम इस मय वारसेवामन्दिरमें मौजूद तथा उसके होल में एक तक यही तोर रहा, हजारों मन गन्ना पिछले साल का काम शीशेके केपमें जदा हुआ सुशोभित है और जिसे मेरे छोटे में पाया और प्रजाके लोग बहुत तंग आगये-- भाई स्वर्गीय बाबू रामप्रसादजी श्रोवरपियरने तय्यार कर(गस्ल का भाव फी रुपया) गेहूं--१ मन २० सेर, कराकर ता० ८ अप्रेल सन् १९२६ को मुकम्मल किया था चना- मन सेर, मकी--२ मन, बाजरा--१ मन और फिर मुझे भेंट किया था। और इस लिये मैं इस जंत्री ३० सेर, उडद--१ मन । तथा इसके लेखक पूर्वजोंका बहुत ऋगी हूँ। बहुत अर्सेमे २७ मई १८५२, गुरुवार--प्राजकी तारीख में हुक्म मेरी इच्छा थी कि मैं इस जंत्रीका कुछ परिचय प्रष्ट करूं, जजमा० बहादुर वास्ते तसदीक मुख्तारनामाके, मुन्सफी परन्तु अनवकाशसे लगातार घिरा रहनेके कारण अवसर मकुड़में पाया। ही नहीं मिलता था। अब जब कि यह जत्रा दीमकोंका २१ अप्रैल १८५३, गुरुवार--ला. दाधीरामने शिकार बन गई है तब, जैसे तैसे कुछ समय निकाल कर मौजा कादरगद की जमींदारीका एक बिस्वा (बीसवां हिस्सा) यह परिचय लिख पाया हूं, और इसे प्रकट करके मैं अपने ६००) रु. में खरीद किया। को इस जंत्रीक ऋणम कुछ उऋण हुश्रा समझता हूँ । ८ जुलाई १८५३ शुक्रवार--मेहरबानअली (सैयद) यहांपर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता है और नरायण दास (महाजन) चिलकाने वालोम बहुत बढ़ा है कि हम जंत्रीमें जंत्रीलेखक ला. दूल हरायजीके पितामह जंग (युद्ध हुश्रा--हवेली नारायण दासकी गारत हुई जिन ला. लालजामल साहब कानू गोका ता. ६ सितम्बर * पाठक इन महंगे भावाका अाजकलक भावाक माथ तुलना सन १८.२को वैकण्ठ स्वर्गवास होना लिम्बा है और करें और देखें कि जब गल्लेके इन भावोंकी कुछ महीनो जिनके वंशज दो शाखाओं में विभक्त होकर इस समय की मौजूदगीम ही प्रजा-जन बहुत व्याकुल हो उठे थे मौजद वे अग्रवाल संगलगोत्री ला हकमतरायजी ! और तंग श्रागये थे, तब श्राज-कल वर्षों से चलने वाली कानगोके पत्र. ला. किरपागमजी कान गोके पौत्र तथा इस भारी मदंगाई के कारण जनताकी श्राकुलना और ला. मधुकरदास जी कानूं गो (पुत्र ला. नन्दरूपजी तंगी कितनी बढ़ी चढ़ी होगी। साथ ही, यह भी सोचें कि गा। साथ ही, यह भी सोच कि कानूँगो) के प्रपौत्र थे। इसे वृटिश-शासन और भारतकी उन्नति समझा जाय या अवनति। वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०२१-१-१६४६
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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