SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनकान्त [ वर्ष ८ टकराने वालेका ही अलाभ" आचार्यने तर्क मौदा करनको तैयार ।" शिष्यकी वाणीम दृढ़ता थी। उपस्थित किया। ___"साधु वत्स ! तुम मच्च साधु हो, साधु वह "पर कुदालीकी सहायतासे उसपर विजय पाई नहीं जो सांसारिक कष्टोंसे भयभीत हो जङ्गलकी जा सकती है देव !” युवक मुनिने तर्कका उत्तर एकान्त कन्दराओंमें तपके बहाने श्रा छिपता है, साधु तकसे ही दिया। वह है जो कष्ट सहनेका अभ्यास करता है। अवसर ___ "ठीक कहते हो बन्धु ! तुम्हारा तर्क गलत नहीं आजानेपर सीना अड़ा देता है। मुझे प्रसन्नता है है। समाज और धर्मकी रक्षाके लिये हर वैध उपायका तुमनं साधुत्वका परिचय दिया, मुझे गर्व है तुम आलम्बन लेना प्रत्येक सामाजिकका कर्तव्य है पर मेरे शिष्य हो।" आचार्य गद्गद हो उठे। हमारा मुनिसमाज इससे भिन्न है। हमारे उद्देश्यकी "देव ! शीघ्र कहिये, में मडकी रक्षा किस प्रकार पृति सहनशीलतामें है। मान-अपमानका विचार हमारे कर सकता हूँ" शिष्यकी आँखोंसे आँसू वह निकले। लिये नहीं है। किसी धर्म विशेषके प्रति आग्रह न तो ठीक है। वादस्थानपर ही आजकी रात फर महिनैपी सिद्धान्तोंको ही हमें अपना धर्म बिताओ । स्मरण रहे कि मन्त्रजन बदला अवश्य मानना चाहिय" आचार्यने उपदेशका महाग लिया। लेगे और यह भी स्मरण रहे कि तुम्ही उनके प्रधान ___ "मैं आपकी शिक्षाके आगे मस्तक झुकाता हूँ, लक्ष्य हा ” आचायन युवक मुनिको स्थितिकी मुझे दण्ड मिलना चाहिय" शिष्यने अपराधीकी विकटतासे पूर्ण परिचित कर दिया। भाँति निवेदन किया। "मुझे स्वीकार हैं देव ! सङ्घक कल्याणमें मेरा ___ "दण्ड ! नहीं, तुम्हें दण्ड नहीं दिया जासकता। कल्याण निहित है, मङ्घकी रक्षा धर्मकी रक्षा है। मैं अपराधी ही दण्डका पात्र है पर ..... . " आचार्य अपनी महनशक्तिका सञ्चा परिचय दूंगा, साधु वृत्तिबीचमं ही रुक गय। का मच्चारूप उपस्थित करूंगा। मुझे विश्वास है मैं __“पर क्या देव ! स्पष्ट कहिय" युवक मुनिने आपत्तिके सम्मुख दृढ अवस्थित रहूँगा, क्योंकि प्रार्थना की। आपका आशीवाद मेरे साथ रहेगा” युवक शिष्य ___ "तुम्हारी इस अकिश्चित उत्तेजनासे मङ्घका अन्तिम नमस्कार कर चल दिया। भारी अकल्याण संभावित है" श्राचायन धीमे "यह दण्ड नहीं प्रायश्चित्त है बन्धु, इस म्मरण स्वरम कह।। रग्बना” चलते-चलत आचार्यन सूचना दी। “मा कैसे देव ?" शिष्यकी वाणीमें दीनता और कम्पन था। मावनकी अंधेरी रात ! नीरव, निस्पंद ! तमकी "मन्त्रीजन अपने अपमानको महज ही सहन मघनता ऐमी कि हाथको हाथ नहीं सूझता था । सर्वत्र नहीं करेंगे और वे इसका अवश्य प्रतिशाध लेंगे। सूनापन छाया हुआ था । एकाकिनी वायुके माँय-माँय मुझे जान पड़ता है आज ही गतको वे....... शब्दकं सिवाय कहीं भी कोई आहट तक न होती अपना बदला हमारे प्राणांसे चुकावंगे ?" आचार्यका थी। चपला विद्युत क्षणभरके लिये चमककर अँधम्वर क्रमशः धीमा हो चला था। कारकी सघनता और भयावहताको और भी बढ़ा "इसके निराकरणका कोई उपाय नहीं है देव ? देती थी। यदि वहाँ कोई व्यक्ति होता तो विद्युतके शिप्यकी आँखों में आँसू भर आय।" इस क्षणिक प्रकाशमें देखता कि चार व्यक्ति दबे पैर "उपाय कष्टसाध्य है" श्राचार्यने दृढ़तासे नगरीके बहिर्मागकी ओर बढ़े जारहे हैं, वे बार-बार उत्तर दिया । पीछे फिरकर देखते हैं जिससे उनके शङ्कित चित्तका "अाज्ञा दीजिये, मैं प्राणोंके मूल्यसे भी उसका अनुमान लगाया जासकता है। भूवेश-पासे वे उच्च
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy